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________________ अध्याय चौथा । ་་ ག कहने का प्रयोजन यह है कि चाहे कोई कर्म सिद्धान्तको जानता हो चाहे न जानता हो. हरएक प्राणीको निरन्तर पुरुषार्थी होना चाहिये । अपनी उचित आवश्यक्ताओंकी पूर्तिका यत्न करना ही चाहिये । दैवके भरोसे बैठ रहना मूर्खता है । प्रयत्नके विना दैव सहायी नहीं होसकता । पुरुषार्थ घडी वस्तु है, यह आत्माकी शक्तिका प्रकाश है, जितना जितना आत्माका या गुण प्रगट होता जाता है, उतना उतना पुरुषार्थ करनेका साधन अधिक होता जाता है । पुरुषार्थमे यह शक्ति है कि संचित कर्मको बल देव और विनाश कर देवे। यह सब हम बता चुके हैं कि राग द्वेष मोहसे कर्मोंका बंध होता है तब इनके विरोधी वा कमका नाश होता है । पुरुषार्थके द्वारा संचित कर्म नीचे लिखे प्रकार परिवर्तन होसकता है- [ १३१ नं० १ संक्रमण - एक कर्मकी प्रकृतिका चदलकर दूसरी प्रकृतिप होजाना संक्रमण है। मूल ८ कम में परस्पर संक्रमण नहीं होता, परन्तु क मृकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रमण हो मक्ता है। जैसे अमातावेदनीयका मातामं, साताका असातामे, नीच गोत्रका उनमें उनका नीच गोत्र में क्रोध, मान, माया, लोभका परम्परमं परन्तु दीन मोहनीयका, चारित्र मोहनीयरूप संक्रमण नहीं होता, न ४ प्रस्तरकी आयुका परम्पर संक्रमण होता है । जीवोंके निर्मल भावोंके निमित्तसे पाप प्रकृति, पुण्य प्रकृतिमैं पल्ट नाती है जन कि विशेष मलीन भावसे पुण्य प्रकृति पापरूप होजाती है । जैसे किमीने किमीको दुख पहुंचाया तो असाताका बंध किया था पश्चात् उसने पश्चात्ताप किया और वीतरागभावकी भावना
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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