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________________ n १२४] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । e. . . . . . . . . . . . . . worक्षीणकषायके अन्तिम समयतक रहेगी। इस तरह ३ सत्वस्थान होंगे९, ६, ४ । ३ वेदनीय कर्म-इसके २ भेद है। दोनोंकी सत्ता १ लेसे १४ वें गुणस्थान तक रहेगी। ४ मोहनीय कर्म-इसके सत्वस्थान १५ है नं० १-सर्व २८, नं० २-सम्यक्त प्रकृति विना २७ नं० ३-सम्यक्त और मिश्र विना २६. नं० ४-८ में ४ अनंतानुबंधी कषाय विना २४, नं० ५-२४ मे मिथ्यात्वके क्षयसे २३, नं० ६-२३ में से मिश्र कर्मके क्षयसे २२, नं० ७-२२ मे सम्यक्तप्रकृतिके क्षयसे २१, नं. ८-२१ मे १ अप्रत्याग्न्यान और ४ प्रत्याख्यान कपायके क्षयसे १३, न० ९-१३ में नमकवेद या स्त्री वेदके क्षयसे १२, नं० १०-१२ मे नपुंसकवेद या स्त्री वेदके क्षयो० ११, नं० ११-११ मे हाम्यादि ६ नोकभायके क्षयसे ५, नं० १२-५ वें वेदके क्षयसे १. नं० १३-४ में क्रोधक क्षयसे ३, नं० १४-३ मे मानके क्षयसे २, नं० १५-२ में मायाके क्षयसे १ लोभ, इसतरह कुल १५ मत्वस्थान होंगे। गुणस्थानोंकी अपेक्षा इनका विवरण इसप्रकार जानना योग्य हैगुणस्थान सत्वस्थानकी प्रकृतियोंकी संख्या । मिथ्यात्व-२८, २७, २६ सासादन-२८ मिश्र-२८,२४ अविरत-२८, २४, २३, २२,२१
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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