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________________ अध्याय तीसरा। [११३ ५ व आयुकर्म-इस कर्मका एक ही उदयस्थान एक किसी आयुक्का होता है जिसको वह जीव नरक तिर्यच मनुष्य वा देवगतिमें भोग रहा है। ६ठा नामकर्म-इसके उदयस्थान १२ होते हैं। २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ९. ८ प्रकृतियोंके होते है। इनका विवरण नीचे लिख प्रकार हैनं० (१) २० का उदयस्थान १२ प्रकृति ध्रुव उदय कहाती है जो सबके उदयमे रहती हैं वे ये है-तेजस शरीर. कार्माण गरीर, वर्णादि ४. अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ १२ इन १२ मे १ गतिमंस १, ५ गतिमेसे १, श्रम स्थावरमसे १, बादर न ममेसे १, पर्याप्त अपर्याप्तमेसे १, सुभग दुर्भगमसे १, आदेय अनादेयमसे १, या अयगमेसे एक । इन ८ को मिलानेसे २० का उदय १३ वें गुणस्थानमें सामान्य समुद्घात केवलीको कार्माण योगमें होता है। नं० (२) २१ का उदयस्थान- इसके २ प्रकार है नं० (१) प्रकार-उपर्युक्त २० ४ गत्यानुपूर्वीमेंसे कोई १ मिलानेसे २१ का उदय विग्रहगतिमे मोडा लेकर एक गरीरको छोडकर दूसरे गरीरमे जाते हुये १-२ या ३ समय रहता है। नं० (२) प्रकार-उपर्युक्त २० में तीर्थकर प्रकृति जोडनेसे २१ का उदय १३ ३ गुणस्थानमें समुद्घात तीर्थकर केवली के योगमें होता है।
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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