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________________ nxnium ...... .........Anirl ९६] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । मनुष्य सहित होगा। इस तरह २५ के बन्ध ६ प्रकार हैं। नं० (३) २६ का वंधस्थान । इसके दो प्रकार होंगे (१) ऊपर २५ मेमे त्रस अपर्याप्त मनुप्याति मनुष्यगत्यानुपूर्वी पंचेंद्रिय जाति महनन अगोंपाग इन ७ को निकाल कर म्यावर पयाप्त. तिर्यचगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, एकेंद्रिय उच्छ्वास, परवात. आतप इन आठके जोडनेसे २६का बंध होगा । एकेंद्रिय पर्याप्त आतप महित होगा। (२) ऊपर १६ मंसे आतप निकालनेस व उद्यान बहानसे २६ का वेवस्थान एकेंद्रिय पर्यत उद्योत महित होगा। नं० (४) २८ का बंधस्थान । इसके २ प्रकार होगे नं०१ प्रकार---देवगति सहित प्रकृति तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुस्लघु, उपधात, निर्माण, वर्णटि ४, त्रय बादर, पर्याप्त, प्रत्येक. स्थिर अस्थिरमसे एक. शुभ अशुभमेसे एक. सुभग, आदेय, या अयशमेसे एक, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेंद्रिय, वैक्रियिक शरीर. वैक्रियिक अंगोपाग, प्रथम संस्थान, लुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात । नं० २ प्रकार-२ पूर्वोक्त तैजस आदि. त्रस बादर, पर्याप्त प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्गम, अनोदय, अयग, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपाग, हुंडक संस्थान, दुस्वर, अप्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात । इनका बन्ध नरकगति सहित होगा। नं० (५) २९ का बंध स्थान । इनके ६ प्रकार होंगे नं० १-नवपूर्वोक्त (२८) में की तैजस आदि) त्रस, बादर,
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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