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________________ ..mricanasshare अध्याय दूसरा। , . [४९. . इस तरह देव या कर्मका प्रवाहरूपसे अनादिकालीन संयोग इस संमारी आलाके साथ होरहा है। इसीलिये स्वाभाविक गुण शुद्ध तथा पूर्ण प्रगट नहीं हैं. अपूर्ण व अशुद्ध ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त, चारित्र, वीर्य व मुख गुण प्राट है इसीलिये इनको 'विभाव कहते हैं। मोहनीय कर्मका फल मदिराके समान मोह या प्रमाद या अंसावधानी या कषाय भावोंको पैदा कर देना है। उन मोहमई विभावोंके कारण साधारण रूपसे जाके प्राणी अपनी आत्माके मूल शुद्ध स्वभावको भूले हुए है व संमारक भीतर फंसे हुए अहंकार ममकार कर रहे हैं। कर्मक पलसे जो आमाके विभाव ढगा होती है वही में हैं, यई अहंकार है । जैसे-में क्रोधी, मैं मानी, मैं मायावी, मैं लोभी, मैं सुखी, मैं दुखो। जो वस्नु अपनी नहीं है पर है उसको अपनी मानना ममकार है। जैसे-मेग शरीर है, मेरा घर है, मेरा परिवार है, मेरा पुत्र है, मेरा ग्राम है, मेग देश है, मेरी संपत्ति है, इस 'अहंकार ममकारमें फैमा हुआ रात दिन कापनका भाव किया करता है। यद्यपि निश्चयसे या म्वभावसे यह आत्मा पर भावका यो पर पतार्थकों करनेवाला नहीं है तौभी मोटी अन्नानी जीव ऐसा माना करता है-मैंने शुभ यो अशुभ भाव किये, मैंने प्राणियोंको दुख व मुख पहुंचाया, मैने मला किया मन बुरा किया, मैंने घटपट मकान गहना वर्तन आदि बनाया, नि तप किया, मैन जप किया, मैंने दान किया, मैंने पूजा की, मैने परोपकार किया; इस तरह अपने आत्माको पर या अशुद्ध भावीका का माना करता है। तथा व्यवहारमें ऐसा ही.कहा जाता है व 10.
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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