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________________ जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ । ४४ ] अवधि तक ज्ञान होता है । मन:पर्यय ज्ञान - यह भी दिव्यज्ञान है जिससे एक योगी महात्मा साधु दूरवर्ती मानवोके मनकी सूक्ष्म रूपी वातोको जान लेता है । साधारणमं ससारी सर्व ही प्राणियोंकि पहले दो ज्ञान मति व श्रुत पाए जाते है । जितना ज्ञान प्रगट रहता है वह आत्माके ही ज्ञान गुणका अंग है, दैवका फल नहीं है, किन्तु दैवका अन्धकार दूर होनेपर प्रकाशकी झलक है। 841 इसी प्रगट ज्ञानको पुरुषार्थ कहते है । इस प्रकाश हरुक आत्मा स्वतंत्रता से जानने का काम कर सक्ता है । जितनी ज्ञानकी शक्ति ढकी है उतना ही अज्ञान रहता है। दर्शनावरण कर्मका जितना क्षयोपगम रहता है अर्थात् जितना उसका उदय नहीं रहता है उतना दर्शन गुणका प्रकाश होता है। वह विभावदर्शन तीन प्रकारका होता है । चक्षुदर्शन - आखके द्वारा सामान्य अवलोकन | अचक्षुदर्शन - आखको छोड़कर अन्य चार इन्द्रिय तथा मनमे सामान्य अवलोकन | अवधिदर्शन - यह दिव्य दर्शन है जो आत्माही के द्वारा अवधिज्ञानकी तरह होता है । जितना दर्शनगुण प्रगट रहता है उतना पुरुषार्थ है | स्वभावरूप ज्ञानको केवलज्ञान, स्वभावरूप दर्शनको केवलदर्शन कहते हैं । इस तरह सर्व ज्ञान पाच प्रकार व दर्शन चार प्रकार है। मोहनीय कर्मके ढो भेट है- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय | दर्शन मोहनीय सम्यक्त गुणको घात करता है। जबतक यथार्थ प्रतीति आत्मा और अन्य पदार्थोंके सत्य स्वरूपकी न हो तबतक सम्यक्त - गुणका विपरीत भाव मिथ्यास प्रगट रहता है । जन इस मिथ्यात्व
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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