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________________ ३६] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । उनको देखनेकी दो दृष्टिया या अपेक्षाएं या नय standpoints है एक निश्चय नय या असली या सच्ची दृष्टि real point of view दूसरी व्यवहार नय या लौकिक दृष्टि या असत्य या अशुद्ध, दृष्टि practical point of view हजार रंगीन पानीके वनोमें निश्चयनयसे केवल पानी ही पानी दीखता है। शुद्ध असली पानी दिखता है, व्यवहारनयसे रंग दिखता है उसी तरह समारी आत्माएं कर्म मैलसे विचित्र प्रकारसे मिली हुई हैं, निश्चयनयसे देखा जावे तो सब शुद्ध अपने स्वभावमे दीखती है, व्यवहारनयस नाना प्रकार अशुद्ध दीखती हैं व कहलाती है । कोई क्रोधी, कोई मानी, कोई मायावी. कोई लोभी, कोई गोकी, कोई हर्षित, कोई विशेष जानी, कोई कम जानी, कोई अनानी । शरीरकी अपक्ष कोई पशु, कोई पक्षी, कोई सी, कोई पुरुष आदि । दोनों दृष्टियोंसे आत्माको जानना चाहिये, पहले हम निश्चयनयसे आत्माका स्वभाव या सच्चा स्वरूप विचारते है। आत्मा स्वभावसे परम शुद्ध है, जैसे निर्मल जल स्वभावसे निमित्त है। शुद्ध पानी निर्मल, मीठा, शीतल आत्माका स्वभाव होता है, वैसे यह आत्मा स्वभावसे निर्मल ज्ञाता दृष्टा निर्विकार वीतराग आनन्दमय परमात्मारूप है। इसके छ. विशेष स्वभावोंका विचार यहा करते है । १-ज्ञान, २दर्शन, ३-सम्यक्त, ४–चारित्र, ५-वीर्य, ६-सुख । ज्ञानदर्शन-जो सब जाननेयोग्यको जान सके वह ज्ञान है, जो सब देखनेयोग्यको देख सके वह दर्शन है। सामान्य चेतनभावको दर्शन, विशेष चेतनभावको ज्ञान कहते हैं। हरएक पदार्थ सामान्य
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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