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________________ जैनधर्म का प्राण ७३ है और कभी उसका आविर्भाव मात्र होता है, वैसे यह समग्र स्थूल विश्व किसी सूक्ष्म कारण मे से आविर्भूत मात्र होता रहता है और वह मूल कारण तो स्वत.सिद्ध अनादि है। दूसरा विचारप्रवाह ऐसा मानता कि यह बाह्य विश्व किसी एक कारण से पैदा नही होता । स्वभाव से ही भिन्न-भिन्न ऐसे उसके अनेक कारण है। और उन कारणो मे भी विश्व दूध मे मक्खन की तरह छिपा हुआ नही था, परन्तु जैसे लकडियो के अलग-अलग टुकडो से एक नयी ही गाड़ी तैयार होती है, वैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के मूल कारणो के सश्लेषण-विश्लेषणो से यह बाह्य विश्व सर्वथा नवीन ही उत्पन्न होता है। पहला परिणामवादी और दूसरा कार्यवादी अथवा आरम्भवादी-ये दोनो विचारप्रवाह यद्यपि बाह्य विश्व के आविर्भाव अथवा उत्पत्ति के विषय मे मतभेद रखते थे, तथापि आन्तरिक विश्व के स्वरूप के बारे मे सामान्यत. एकमत थे। ये दोनो ऐसा मानते थे कि अह नामक आत्मतत्त्व अनादि है। न तो वह किनी का परिणाम है और न वह किसी कारण मे से उत्पन्न हुआ है । जैसे वह आत्मतत्त्व अनादि है वैने ही देश एव काल इन दोनो दृष्टियो से वह अनन्त भी है, और वह आत्मतत्त्व देहभेद से भिन्न-भिन्न है, वास्तव में वह 'एक नहीं है । तीसरा विचार प्रवाह ऐमा भी था कि जो बाह्य तत्त्व और आन्तरिक जीव-जगत दोनो को किसी एक अखण्ड सत् तत्त्व का परिणाम मानता और बाह्य अथवा आन्तरिक जगत की प्रकृति या कारण मे मूलतः किसी भी प्रकार के भेद मानने से इन्कार करता था। जैन विचारप्रवाह का स्वरूप उपर्युक्त तीन विचारप्रवाही को हम अनुक्रम से प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी कह सकते है । इनमे से प्रारम्भ के दो विचारप्रवाहों से विशेष मिलता-जुलता और फिर भी उनसे भिन्न एक चौथा विचारप्रवाह भी उनके साथ प्रचलित था। वह विचारप्रवाह था तो परमाणुवादी, परन्तु वह दूसरे विचार-प्रवाह की भाति बाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुओं को मूलतः भिन्न-भिन्न मानने के पक्ष मे न था, मूलतः सभी परमाणु
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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