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________________ जैनधर्म का प्राण २७ प्रकट होता है और कोई किसीसे कम योग्य या अधिक योग्य रहने नहीं पाता । जीव जगत् के प्रति श्रमणधर्म की दृष्टि पूर्ण आत्मसाम्य की है, जिसमे न केवल पशु-पक्षी आदि या कीट-पतंग आदि जन्तु का ही समावेश होता है, अपितु वनस्पति जैसे अति क्षुद्र जीववर्ग का भी समावेश होता है । इसमें किसी भी देहधारी का किसी भी निमित्त से किया जानेवाला वघ आत्मवध जैसा ही माना गया है और वघमात्र को अधर्म का हेतु माना है । ब्राह्मण परम्परा मूल में 'ब्रह्मन्' के आसपास शुरू और विकसित हुई है, जबकि श्रमण परम्परा 'सम' - साम्य, राम और श्रम के आसपास शुरू एव विकसित हुई है । ब्रह्मन् के अनेक अर्थों मे से प्राचीन दो अर्थ इस जगह ध्यान देने योग्य है - (१) स्तुति, प्रार्थना, (२) यज्ञयागादि कर्म । वैदिक मंत्रो एव सूक्तो के द्वारा जो नानाविध स्तुतिया और प्रार्थनाएँ की जाती है वे ब्रह्मन् कहलाती हैं । इसी तरह वैदिक मंत्रों के विनियोगवाला यज्ञयागादि कर्म भी ब्रह्मन् कहलाता है । वैदिक मंत्रो और सूक्तो का पाठ करनेवाला पुरोहितवर्ग और यज्ञयागादि कर्म करानेवाला पुरोहितवर्ग ही ब्राह्मण है । वैदिक मंत्रो के द्वारा की जानेवाली स्तुति - प्रार्थना एव यज्ञयागादि कर्म की अतिप्रतिष्ठा के साथ-ही-साथ पुरोहितवर्ग का समाज में एव तत्कालीन धर्म मे ऐसा प्राधान्य स्थिर हुआ कि जिससे वह ब्राह्मण वर्ग अपने-आपको जन्म से ही श्रेष्ठ मानने लगा और समाज मे भी बहुधा वही मान्यता स्थिर हुई, जिसके आधार पर वर्गभेद की मान्यता रूढ हुई और कहा गया कि समाज-पुरुष का मुख ब्राह्मण है और इतर वर्ण अन्य अग है । इसके विपरीत श्रमणधर्म यह मानता - मनवाता था कि सभी स्त्री-पुरुष सत्कर्म एव धर्मपद के समानरूप से अधिकारी है । जो प्रयत्नपूर्वक योग्यता लाभ करता है वह वर्ग एव लिंगभेद के बिना ही गुरुपद का अधिकारी बन सकता है । यह सामाजिक एव धार्मिक समता की मान्यता जिस तरह ब्राह्मणधर्म की मान्यता से बिलकुल विरुद्ध थी, उसी तरह साध्यविषयक दोनो की मान्यता भी परस्पर विरुद्ध रही । श्रमणधर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय को सर्वथा हेय मानकर निःश्रेयस को ही एकमात्र उपादेय मानने की ओर अग्रसर था और इसीलिए वह साध्य की तरह
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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