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________________ जैनधर्म का प्राण सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दृष्टि अर्थात् दर्शन । दर्शन का सामान्य अर्थ देखना होता है । आँख से जो-जो बोध होता है उसे देखना' या 'दर्शन' कहते है। परन्तु इस स्थान पर दृष्टि या दर्शन का अर्थ मात्र 'नेत्रजन्य बोध' ही नही है; यहा तो उसका अर्थ अत्यन्त विशाल है । किसी भी इन्द्रिय से होनेवाला ज्ञान यहा दृष्टि अथवा दर्शन से अभिप्रेत है । इतना ही नही, मन की सहायता के बिना यदि आत्मा को ज्ञान शक्य हो तो वैसा ज्ञान भी यहा दृष्टि अथवा दर्शन रूप से अभिप्रेत है। साराश यह कि सम्यग्दृष्टि अर्थात् किसी भी प्रकार का सम्यक् बोध और मिथ्यादृष्टि अर्थात् प्रत्येक प्रकार का मिथ्या बोध । देह धारण करना, श्वासोच्छ्वास लेना, ज्ञानेन्द्रियो से जानना और कर्मेन्द्रियो से काम करना-इतना ही मात्र जीवन नही है, परन्तु मन और चेतन की भिन्न-भिन्न भूमिकाओ मे सूक्ष्म और सूक्ष्मतर अनेक प्रकार के सवेदनो का अनुभव करना भी जीवन है। ऐसे व्यापक जीवन के पहलू भी अनेक हैं । इन सब पहलुओ को मार्गदर्शन करानेवाली और जीवन को चलानेवाली 'दृष्टि' है। यदि दृष्टि सही हो तो उसके मार्गदर्शन मे जीवित जीवन कलकरहित होगा, और यदि दृष्टि भ्रान्त अथवा उल्टी हो तो उसके अनुसार जीवन भी कलकयुक्त ही होगा । अतः यह विचारना चाहिए कि सही दृष्टि क्या है और गलत दृष्टि किसे कहते है। कई शब्द इन्द्रियगम्य वस्तु के द्योतक होते हैं, तो कई शब्द मनोगम्य पदार्थ के ही बोधक होते हैं । जहा शब्द का अर्थ इन्द्रियगम्य हो वहा उसके अर्थ की बोधकता मे सशोधन-परिवर्तन करने का कार्य सरल होता है, परन्तु जहा शब्द का अर्थ अतीन्द्रिय या मनोगम्य मात्र हो वहा अर्थ में कमी-बेशी का काम बहुत कठिन होता है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि शब्द चिड़िया या घोड़ा आदि शब्दो की भाँति इन्द्रियगम्य वस्तु के द्योतक न होकर मनोगम्य अथवा अतीन्द्रिय भावो के सूचक है । इसलिए इन शब्दो के यथार्थ अर्थ की तरफ जाने का अथवा परम्परा से प्रथम अवगत अर्थ में सशोधन, परिवर्तन या परिवर्घन 'करने का काम बहुत कठिन होने से विवेक और प्रयत्नसाध्य है। जीवनमात्र मे चेतनतत्त्व के अस्तित्व मे श्रद्धा रखना और वैसी श्रद्धा
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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