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________________ जैनधर्म का प्राण अगर यथार्थ है, तो मेरी राय मे वह समग्र दर्शनो द्वारा निर्विवाद और असदिग्ध रूप से सम्मत निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रमेयों मे ही घट सकता है १ पुनर्जन्म, २. उसका कारण, ३. पुनर्जन्मग्राही कोई तत्त्व, ४ साधनविशेष द्वारा पुनर्जन्म के कारणो का उच्छेद। ये प्रमेय साक्षात्कार के विषय माने जा सकते है । कभी-न-कभी किसी तपस्वी द्रष्टा या द्रष्टाओ को उक्त तत्त्वो का साक्षात्कार हुआ होगा ऐसा कहा जा सकता है; क्योकि आज तक किसी आध्यात्मिक दर्शन मे इन तथा ऐसे तत्त्वो के बारे मे न तो मतभेद प्रकट हुआ है और न उनमे किसीका विरोध ही रहा है। पर उक्त मूल आध्यात्मिक प्रमेयो के विशेष-विशेष स्वरूप के विषय मे तथा उनके ब्यौरेवार विचार मे सभी प्रधान-प्रधान दर्शनो का और कभी-कभी तो एक ही दर्शन की अनेक शाखाओ का इतना अधिक मतभेद और विरोध शास्त्रो मे देखा जाता है कि जिसे देखकर तटस्थ समालोचक यह कभी नही मान सकता कि किसी एक या सभी सम्प्रदाय के ब्यौरेवार मन्तव्य साक्षात्कार के विषय हुए हो। अगर ये मन्तव्य साक्षात्कृत हो तो किस सम्प्रदाय के ? किसी एक सम्प्रदाय के प्रवर्तक को ब्यौरे के बारे मे साक्षात्कर्ता-द्रष्टा साबित करना टेढी खीर है । अतएव बहुत हुआ तो उक्त मूल प्रमेयो मे दर्शन का साक्षात्कार अर्थ मान लेने के बाद ब्यौरे के बारे मे दर्शन का कुछ और ही अर्थ करना पडेगा। विचार करने से जान पडता है कि दर्शन का दूसरा अर्थ 'सबल प्रतीति' ही करना ठीक है । शब्द के अर्थो के भी जुदे-जुदे स्तर होते है । दर्शन के अर्थ का यह दूसरा स्तर है । हम वाचक उमास्वाति के “तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्" इस सूत्र मे तथा इसकी व्याख्याओ मे यह दूसरा स्तर स्पष्ट पाते है । वाचक ने साफ कहा है कि प्रमेयो की श्रद्धा ही दर्शन है। यहां यह कभी न भूलना चाहिए कि श्रद्धा के माने है बलवती प्रतीति या विश्वास, न कि साक्षात्कार । श्रद्धा या विश्वास, साक्षात्कार को सम्प्रदाय में जीवित रखने की एक भूमिका-विशेष है, जिसे मैने दर्शन का दूसरा स्तर कहा है। यो तो सम्प्रदाय हरएक देश के चिन्तको मे देखा जाता है। यूरोप
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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