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________________ : १ : पूर्व भूमिका [ धर्म, तत्त्वज्ञान, सस्कृति इत्यादि का सामान्य विवेचन ] १. धर्म, तत्त्वज्ञान और संस्कृति ज्ञान एवं विद्या केवल अधिक वाचन से ही प्राप्त होती है, ऐसा नही है । कम या अधिक पढना रुचि, शक्ति और सुविधा का प्रश्न है । परन्तु कम पढने पर भी अधिक सिद्धि एव लाभ प्राप्त करना हो तो उसके लिए अनिवार्य शर्त यह है कि मन को उन्मुक्त रखना और सत्यजिज्ञासा की सिद्धि मे किसी भी प्रकार के पूर्वग्रह अथवा रूढ़ सस्कारो को बीच मे आने न देना । मेरा अनुभव कहता है कि इसके लिए सबसे पहले निर्भयता की आवश्यकता है । धर्म का कोई भी सही और उपयोगी अर्थ होता हो तो वह है निर्भयता के साथ सत्य की खोज । तत्त्वज्ञान सत्यशोध का एक मार्ग है । हम चाहे जिस विषय का अध्ययन करे, परन्तु उसके साथ सत्य और तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध होता है । ये दोनो चीजे किसी भी सीमा मे बद्ध नही होती । मन के सभी द्वार सत्य के लिए उन्मुक्त हो और निर्भयता उसकी पार्श्वभूमि मे हो, तो जो कुछ भी सोचे या करे वह सब तत्त्वज्ञान अथवा धर्म मे आ जाता है । जीवन मे से मैल और निर्बलता को दूर करना तथा उनके स्थान पर सर्वागीण स्वच्छता एव सामजस्यपूर्ण बल पैदा करना ही जीवन की सच्ची सस्कृति है । यही बात प्राचीनकाल से प्रत्येक देश और जाति मे धर्म के नाम से प्रसिद्ध है । हमारे देश मे संस्कृति की साधना हजारो वर्ष पहले से शुरू हुई थी और वह आज भी चल रही है । इस साधना के लिए भारत का नाम सुविख्यात है | सच्ची सस्कृति के बिना मानवता अथवा राष्ट्रीयता पैदा नही होती और वह पनपती भी नही । व्यक्ति की सभी शक्तियां और प्रवृत्तिया एकमात्र सामाजिक कल्याण की दिशा में योजित हों तभी धर्म
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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