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________________ जैनधर्म का प्राण परन्तु दोनों वर्गो की बुद्धि के प्रवाह तो किसी अन्तिम सत्य की ओर ही बह रहे थे। बीच के अनेक युगो मे इन दोनो प्रवाहो की दिशा अलग या अलग-सी लगती, कभी कभी इन दोनो मे सघर्ष भी होते; परन्तु सम का आत्मलक्षी प्रवाह अन्त मे समग्र विश्व मे चेतनतत्त्व है और वैसा तत्त्व सभी देहवारियो मे समान ही है ऐसी स्थापना मे परिसमाप्त हुआ। इसी से उसने पृथ्वी, पानी और वनस्पति तक मे चेतनतत्त्व देखा और उसका अनुभव किया। दूसरी ओर प्रकृतिलक्षी दूसरा विचारप्रवाह विश्व के अनेक बाह्य पहलुओ को छूता हुआ अन्तर की ओर उन्मुख हुआ और उसने उपनिषत्काल मे स्पष्ट रूप से स्थापित किया कि निखिल विश्व के मूल मे जो एक सत् या ब्रह्म तत्त्व है वही देहधारी जीवव्यक्ति मे भी है। इस प्रकार पहले प्रवाह मे व्यक्तिगत चिन्तन समग्र विश्व के समभाव मे परिणत हुआ और उसके आधार पर जीवन का आचारमार्ग भी स्थापित किया गया। दूसरी ओर विश्व के मूल मे दिखाई देनेवाला परम तत्त्व ही व्यक्तिगत जीव है-जीवव्यक्ति उस परम तत्त्व से भिन्न नहीं है ऐसा अद्वैत भी स्थापित हुआ और इस अद्वैत के आधार पर अनेक आचारो की योजना भी हुई। गगा और ब्रह्मपुत्रा के प्रभव स्थान भिन्न-भिन्न होने पर भी अन्त मे वे दोनो प्रवाह जिस तरह एक ही महासमुद्र मे मिलते है, उसी तरह आत्मलक्षी और प्रकृतिलक्षी दोनों विचारधाराएँ अन्त मे एक ही भूमिका पर आ मिलती है। इनमे भेद प्रतीत होता हो तो वह केवल शाब्दिक है और बहुत हुआ तो बीच के समय में सघर्ष के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए सस्कारो के कारण है। शाश्वत विरोध होने पर भी एकता की प्रेरक परमार्थ दृष्टि यह सही है कि समाज मे, शास्त्रो मे और शिलालेख आदि मे भी ब्रह्म और सम के आसपास फैले हुए विचार और आचारो के भेद और विरोधो का उल्लेख आता है। हम बौद्ध पिटको, जैन आगमों और अशोक के शिलालेखो तथा दूसरे अनेक ग्रन्थों मे ब्राह्मण और श्रमण इन दो वर्गों का उल्लेख देखते है। महाभाष्यकार पतजलि ने इन दोनो वर्गों मे शाश्वत विरोध है ऐसा भी निर्देश किया है। ऐसा होने पर भी, ऊपर कहा उस प्रकार, ये दोनो प्रवाह
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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