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________________ जैनधर्म का प्राण १८९ इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि निश्चय और व्यवहार नय ये दो शब्द भले ही समान हो, पर तत्त्वज्ञान और आचार के क्षेत्र मे भिन्न-भिन्न अभिप्राय से लाग होते है और हमे विभिन्न परिणामो पर पहुंचाते है । जैन एवं उपनिषद के तत्त्वज्ञान की निश्चयदृष्टि के बीच भेद निश्चयदृष्टि से जैन तत्त्वज्ञान की भूमिका औपनिषद तत्त्वज्ञान से बिलकुल भिन्न है। प्राचीन माने जानेवाले सभी उपनिषद् सत्, असन्, आत्मा, ब्रह्म, अव्यक्त, आकाश आदि भिन्न-भिन्न नामो से जगत के मूल का निरूपण करते हुए केवल एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते है कि जगत् जडचेतन आदि रूप मे कैसा ही नानारूप क्यो न हो, पर उसके मूल मे असली तत्त्व तो केवल एक ही है, जब कि जैनदर्शन जगत के मूल मे किसी एक ही तत्त्व का स्वीकार नहीं करता, प्रत्युत परस्पर विजातीय ऐसे स्वतन्त्र दो तत्त्वो का स्वीकार करके उसके आधार पर विश्व के वैश्वरूप की व्यवस्था करता है। चौबीस तत्त्व माननेवाले साख्य दर्शन को और शाकर आदि वेदान्त शाखाओ को छोडकर भारतीय दर्शनो मे ऐसा कोई दर्शन नही जो जगत के मूलरूप से केवल एक तत्त्व स्वीकार करता हो । न्यायवैशेषिक हो, साख्य-योग हो या पूर्वमीमासा हो, सब अपने-अपने ढग से जगत के मूल मे अनेक तत्त्वो का स्वीकार करते है। इससे स्पष्ट है कि जैन तत्त्वचिन्तन की प्रकृति औपनिषद तत्त्वचिन्तन की प्रकृति से सर्वथा भिन्न है। (द० औ० चि० ख० २, पृ० ४९८-५००)
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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