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________________ १८६ जैनधर्म का प्राण नय उपर्युक्त सात नयो से अलग नहीं है, किन्तु उन्ही का सक्षिप्त वर्गीकरण या भूमिका मात्र है। द्रव्य अर्थात् सामान्य, अन्वय, अभेद या एकत्व को विषय करनेवाला विचारमार्ग द्रव्यार्थिक नय है। नैगम, सग्रह और व्यवहार-ये तीनो द्रव्यार्थिक ही है। इनमे से सग्रह तो शुद्ध अभेद का विचारक होने से शुद्ध या मूल ही द्रव्यार्थिक है, जब कि व्यवहार और नैगम की प्रवृत्ति भेदगामी होकर भी किसी न किसी प्रकार के अभेद को भी अवलम्बित करके ही चलती है। इसलिए वे भी द्रव्याथिक ही माने गये है । अलबत्ता, वे संग्रह की तरह शुद्ध न होकर अशुद्ध-मिश्रित ही द्रव्यार्थिक है। पर्याय अर्थात् विशेप, व्यावृत्ति या भेद को ही लक्ष्य करके प्रवृत्त होनेवाला विचारपथ पर्यायाथिक नय है। ऋजुसूत्र आदि बाकी के चारो नय पर्यायार्थिक ही माने गये है। अभेद को छोड़कर एकमात्र भेद का विचार ऋजुसूत्र से शुरू होता है; इसलिए उसी को शास्त्र मे पर्यायाथिक नय की प्रकृति या मूलाधार कहा है। पिछले तीन नय उसी मूलभूत पर्यायार्थिक के एक प्रकार से विस्तारमात्र है। केवल ज्ञान को उपयोगी मानकर उसके आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचारधारा ज्ञाननय है, तो केवल क्रिया के आश्रय से प्रवृत्त होनेवाली विचारधारा क्रियानय है। नयरूप आधार-स्तम्भो के अपरिमित होने के कारण विश्व का पूर्ण दर्शन-अनेकान्त भी निस्सीम है। (द० औ० चिं० ख० २, पृ० १७०-१७२) निश्चय और व्यवहार नय का अन्य दर्शनों में स्वीकार निश्चय और व्यवहार नय जैन परम्परा मे प्रसिद्ध है। विद्वान् लोग जानते है कि इसी नय-विभाग की आधारभूत दृष्टि का स्वीकार इतर दर्शनो मे भी है । बौद्ध दर्शन बहुत पुराने समय से परमार्थ और सवृति इन दो दृष्टियो से निरूपण करता आया है। शाकर वेदान्त की पारमार्थिक तथा व्यावहारिक या मायिक दृष्टि प्रसिद्ध है। इस तरह जैन-जैनेतर दर्शनों मे परमार्थ या निश्चय और सवृति या व्यवहार दृष्टि का स्वीकार तो है, पर उन दर्शनो मे उक्त दोनो दृष्टियो से किया जानेवाला तत्त्वनिरूपण बिलकुल जुदा-जुदा है। यद्यपि जैनेतर सभी दर्शनो मे निश्चयदृष्टिसम्मत तत्त्व
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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