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________________ १७४ जैनधर्म का प्राण अन्य कर्मरूप कब बन सकता है ? उसकी बन्धकालीन तीव्र-मन्द शक्तियाँ किस प्रकार बदली जा सकती है ? पीछे से विपाक देनेवाला कर्म पहले ही कब और किस तरह भोगा जा सकता है ? कितना भी बलवान कर्म क्यो न हो, पर उसका विपाक शुद्ध आत्मिक परिणामो से कैसे रोक दिया जाता है ? कभी-कभी आत्मा के शतश. प्रयत्न करने पर भी कर्म अपना विपाक बिना भोगवाए क्यो नही छूटता ? आत्मा किस तरह कर्म का कर्ता और किस तरह भोक्ता हे ? इतना होने पर भी वस्तुत आत्मा मे कर्म का कर्तव्य और भोक्तृत्व किस प्रकार नही है ? सक्लेशरूप परिणाम अपनी आकर्षणशक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस तरह डाल देते है ? आत्मा वीर्य-शक्ति के आविर्भाव के द्वारा इस सूक्ष्म रज के पटल को किस तरह उठा फेक देती है। स्वभावत शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से किसकिस प्रकार मलीन-सी दीखती है ? और बाह्य हजारों आवरणो के होने पर भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से च्युत किस तरह नही होती है ? वह अपनी उत्क्रान्ति के समय पूर्वबद्ध तीव्र कर्मों को भी किस तरह हटा देती है? वह अपने मे वर्तमान परमात्मभाव को देखने के लिए जिस समय उत्सुक होती है उस समय उसके, और अतरायभूत कर्म के बीच कैसा द्वन्द्व (यद्ध) होता है ? अन्त मे वीर्यवान आत्मा किस प्रकार के परिणामो से बलवान कर्मों को कमजोर करके अपने प्रगति-मार्ग को निष्कण्टक करती है ? आत्म-मन्दिर मे वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने मे सहायक परिणाम, जिन्हे 'अपूर्वकरण' तथा 'अनिवृत्तिकरण' कहते है, उनका क्या स्वरूप है ? जीव अपनी शुद्ध परिणाम-तरगमाला के वैद्युतिक यन्त्र से कर्म के पहाड़ों को किस कदर चूर-चूर कर डालता है ? कभी-कभी गुलाट खाकर कर्म ही, जो-कुछ देर के लिए दबे होते हैं, वे ही प्रगतिशील आत्मा को किस तरह नीचे पटक देते है ? कौन-कौन कर्म, बन्ध की व उदय की अपेक्षा आपस मे विरोधी है ? किस कर्म का बन्ध किस अवस्था मे अवश्यंभावी और किस अवस्था मे अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत मे अनियत है ? आत्मसबद्ध अतीन्द्रिय कर्मराज किस प्रकार की आकर्षणशक्ति से स्थूल पुद्गलो को खीचा करता है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्म शरीर आदि का निर्माण किया करता
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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