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________________ जैनधर्म का प्राण १६५ और फिर से पानी का भापरूप बन जाना इत्यादि। इसलिए ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानने की कोई जरूरत नही है। प्राणी जैसा कर्म करते है वैसा फल उनको कर्म द्वारा ही मिल जाता है। कर्म जड़ है और प्राणी अपने किये बरे कर्म का फल नही चाहते यह ठीक है, पर यह ध्यान में रखना चाहिए कि जीव के -चेतन के सग से कर्म मे ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि जिससे वह अपने अच्छे-बुरे विपाको को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है । कर्मवाद यह नही मानता कि चेतन के सबन्ध के सिवाय ही जड़ कर्म भोग देने में समर्थ है। वह इतना ही कहता है कि फल देने के लिए ईश्वररूप चेतन की प्रेरणा मानने की कोई जरूरत नही, क्योकि सभी जीव चेतन है वे जैसा कर्म करते हैं उसके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिससे बुरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठने है कि जिससे उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दूसरी बात, केवल चाहना न होने ही से किए कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता। सामग्री इकट्ठी हो गई फिर कार्य आप ही आप होने लगता है । उदाहरणार्थ-एक मनुष्य धूप मे खडा है, गर्म चीज खाता है और चाहता है कि प्यास न लगे, सो क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है? ईश्वरकर्तृत्ववादी कहते है कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म अपना-अपना फल प्राणियो पर प्रकट करते है। इस पर कर्मवादी कहते है कि कर्म करने के समय परिणामानुसार जीव मे ऐसे सस्कार पड़ जाते है कि जिनसे प्रेरित होकर कर्ता जीव कर्म के फल को आप ही भोगते है और कर्म उन पर अपने फल को आप ही प्रकट करते है। ईश्वर और जीव के बीच भेदाभेद ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन, फिर उनमें अन्तर ही क्या है ? हॉ, अन्तर इतना हो सकता है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों से घिरी हुई है और ईश्वर की नही । पर जिस समय जीव अपने आवरणो को हटा देता है, उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्रकाशित हो जाती है। फिर जीव और ईश्वर मे विषमता किस बात की ? विषमता का
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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