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________________ १६० जैनधर्म का प्राण विहित आचरणो से धर्म की उत्पत्ति बतलाकर तथा निन्ध आचरणो से अधर्म की उत्पत्ति बतलाकर सब तरह की सामाजिक सुव्यवस्था का ही सकेत करता था । वही दल ब्राह्मणमार्ग, मीमासक और कर्मकाण्डी नाम से प्रसिद्ध हुआ। मोक्षपुरुषार्थी निवर्तक-धर्मवादी पक्ष कर्मवादियों का दूसरा दल उपर्युक्त दल से बिलकुल विरुद्ध दृष्टि रखने वाला था। यह मानता था कि पुनर्जन्म का कारण कर्म अवश्य है, शिष्टसम्मत एव विहित कर्मो के आचरण से धर्म उत्पन्न होकर स्वर्ग भी देता है, पर वह धर्म भी अधर्म की तरह ही सर्वथा हेय है । इसके मतानुसार एक चौथा स्वतन्त्र पुरुषार्थ भी है जो मोक्ष कहलाता है। इसका कथन है कि एकमात्र मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है और मोक्ष के वास्ते कर्ममात्र, चाहे वह पुण्यरूप हो या पापरूप, हेय है। यह नही कि कर्म का उच्छेद शक्य न हो। प्रयत्न से वह भी शक्य है। जहाँ कही निवर्तक-धर्म का उल्लेख आता है वहाँ सर्वत्र इसी मत का सूचक है । इसके मतानुसार जब आत्यन्तिक कर्मनिवृत्ति शक्य और इष्ट है तब इसे प्रथम दल की दृष्टि के विरुद्ध ही कर्म की उत्पत्ति का असली कारण बतलाना पड़ा। इसने कहा कि धर्म और अधर्म का मूल कारण प्रचलित सामाजिक विधि-निषेध नही, किन्तु अज्ञान और राग-द्वेष है। कैसा ही शिष्टसम्मत और विहित सामाजिक आचरण क्यो न हो, पर अगर वह अज्ञान एव रागद्वेषमूलक है तो उससे अधर्म की ही उत्पत्ति होती है। इसके मतानुसार पुण्य और पाप का भेद स्थूल दृष्टिवालो के लिए है। तत्त्वत. पुण्य और पाप अज्ञान एव राग-द्वेषमूलक होने मे अधर्म एव हेय ही हैं। यह निवर्तक-धर्मवादी दल सामाजिक न होकर व्यक्तिविकासवादी रहा। ____ जब इसने कर्म का उच्छेद और मोक्ष पुरुषार्थ मान लिया तब इसे कर्म के उच्छेदक एव मोक्ष के जनक कारणो पर भी विचार करना पड़ा। इसी विचार के फलस्वरूप इसने जो कर्मनिवर्तक कारण स्थिर किये वही इस दल का निवर्तकधर्म है । प्रवर्तक और निवर्तक धर्म की दिशा बिलकुल परस्पर विरुद्ध है। एक का ध्येय सामाजिक व्यवस्था की रक्षा और
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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