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________________ १५८ जैनधर्म का प्राण सबन्ध दोनो परम्पराए आग्रायणीय पूर्व के साथ बतलाती है। दोनों परम्पराएँ आग्रायणीय पूर्व को दृष्टिवाद नामक बारहवे अङ्गान्तर्गत चौदह पूर्वो मे से दूसरा पूर्व कहती है और दोनो श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्पराएँ समान रूप से मानती है कि सारे अङ्ग तथा चौदह पूर्व यह सब भगवान् महावीर की सर्वज्ञ वाणी का साक्षात् फल है । इस साम्प्रदायिक चिरकालीन मान्यता के अनुसार मौजूदा सारा कर्मविषयक जैन वाङमय शब्दरूप से नही तो अन्ततः भावरूप से भगवान् महावीर के साक्षात् उपदेश का ही परम्पराप्राप्त सारमात्र है। इसी तरह यह भी साम्प्रदायिक मान्यता है कि वस्तुतः सारी अङ्गविद्याएँ भावरूप से केवल भगवान् महावीर की ही पूर्वकालीन नहीं, बल्कि पूर्व-पूर्व मे हुए अन्यान्य तीर्थङ्करो से भी पूर्वकाल की अतएव एक तरह से अनादि है। प्रवाहरूप से अनादि होने पर भी समय-समय पर होनेवाले नव-नव तीर्थरो के द्वारा वे पूर्व-पूर्व अङ्गविद्याएँ नवीन नवीनत्व धारण करती है। इसी मान्यता को प्रकट करते हुए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमासा मे, नैयायिक जयन्त भट्ट का अनुकरण करके, बडी खूबी से कहा है कि-"अनादय एवैता विद्या सक्षेपविस्तरविवक्षया नवनवीभवन्ति, तत्तत्कर्तृ काश्चोच्यन्ते । किन्नाौषी न कदाचिदनीदृश जगत् ।" अनादिकालीन ये विद्याएँ सक्षेप अथवा विस्तारपूर्वक विवरण करने की इच्छा से नया-नया स्वरूप धारण करती है और विवरण करनेवाले की कृति रूप से पहिचानी जाती हैं । क्या ऐसा नही सुना कि दुनिया तो सदा से ऐसी ही चली आती है ? ____ उक्त साम्प्रदायिक मान्यता ऐसी है कि जिसको साम्प्रदायिक लोग आज तक अक्षरशः मानते आए है और उसका समर्थन भी वैसे ही करते आए हैं जैसे मीमासक लोग वेदो के अनादित्व की मान्यता का । साम्प्रदायिक लोगो मे पूर्वोक्त शास्त्रीय मान्यता का आदरणीय स्थान होने पर भी इस जगह कर्मशास्त्र और उसके मुख्य विषय कर्मतत्त्व के सबन्ध मे एक दूसरी दृष्टि से भी विचार करना प्राप्त है। वह दृष्टि है ऐतिहासिक। कर्मतत्त्व की आवश्यकता क्यों ? पहिला प्रश्न कर्मतत्त्व मानना या नही और मानना तो किस आधार
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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