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________________ जैनधर्म का प्राण १४५ प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण-धारण है, सो इसलिए कि उससे अनेक गुण प्राप्त होते हैं। प्रत्याख्यान करने से आस्रव का निरोध अर्थात् सवर होता है। सवर से तृष्णा का नाग, तृष्णा के नाम से निरुपम समभाव और ऐसे समभाव से क्रमश मोक्ष का लाभ होता है। क्रम की स्वभाविकता तथा उपपत्ति जो अन्तर्दृष्टिवाले है, उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभावसामायिक प्राप्त करना है। इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार मे समभाव का दर्शन होता है। अन्तर्दृष्टिवाले जब किसी को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते है, तब वे उनके वास्तविक गुणो की स्तुति करने लगते हैं। इस तरह वे समभाव-स्थित साधु पुरुषो को वन्दन-नमस्कार करना भी नही भूलते । अन्तर्दृष्टिवालो के जीवन मे ऐमी स्फूर्ति-अप्रमत्तता होती है कि कदाचित् वे पूर्ववासनावश या कुससर्गवश समभाव से गिर जाएँ, तब भी उस अप्रमत्तता के कारण प्रतिक्रमण करके वे अपनी पूर्व-प्राप्त स्थिति को फिर पा लेते है और कभी-कभी तो पूर्व-स्थिति से आगे भी बढ । जाते है। ध्यान ही आध्यात्मिक जीवन के विकास की कुजी है। इसके लिए अन्तर्दष्टिवाले बार-बार ध्यान-कायोत्सर्ग किया करते है। ध्यान द्वारा चित्तशुद्धि करते हुए वे आत्मस्वरूप मे विशेषतया लीन हो जाते है। अतएव जड वस्तुओ के भोग का परित्याग-प्रत्याख्यान भी उनके लिए साहजिक क्रिया है। ___ इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि आध्यात्मिक पुरुषो के उच्च तथा स्वाभाविक जीवन का पृथक्करण ही 'आवश्यक-क्रिया' के क्रम का आधार है। 'आवश्यक-क्रिया' को आध्यात्मिकता जो क्रिया आत्मा के विकास को लक्ष्य मे रखकर की जाती है, वही आध्यात्मिक क्रिया है। आत्मा के विकास का मतलब उसके सम्यक्त्व, चेतन, चारित्र आदि गुणो की क्रमश शुद्धि करने से है। इस कसौटी पर कसने से यह अभ्रान्त रीति से सिद्ध होता है कि 'सामायिक' आदि छहो 'आव
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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