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________________ जैनधर्म का प्राण १३३ स्त्री की जाति, कुल, रूप और वेश आदि का वर्णन या विवेचन नहीं करना । (३) स्त्रियो के साथ एक आसन पर नहीं बैठना । जिस आसन पर स्त्री बैठी हो उस पर भी उसके उठने के बाद दो घड़ी तक नही बैठना। (४) स्त्रियों के मनोहर नयन, नासिका आदि इन्द्रियों का अथवा उनके अंगोपागों का अवलोकन नही करना और उनके बारे मे चिन्तनस्मरण भी नही करना। (५) स्त्रियो के रतिप्रसग के अव्यक्त शब्द, रतिकलह के शब्द, गीतध्वनि, हास्य की किलकारियाँ, क्रीड़ा के शब्द और विरहकालीन रुदन के शब्द पर्दे के पीछे छिपकर अथवा दीवार की आड़ मे रहकर भी नही सुनना। (६) पूर्व मे अनुभूत, आचरित या सुनी गई रतिक्रीड़ा, कामक्रीड़ा आदि को याद नही करना। (७) धातुवर्धक पौष्टिक भोजनपान नही लेना। (८) सादा भोजनपान भी मात्रा से अधिक नही लेना। (९) शृगार नहीं करना अर्थात् कामराग के उद्देश्य से स्नान, विलेपन, धूप, माल्य, विभूषण अथवा वेश इत्यादि की रचना नही करना। (१०) जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श कामगुण के ही पोषक हों उनका त्याग करना। इनके अतिरिक्त कामोद्दीपक हास्य न करना, स्त्रियों के चित्र न रखना और न देखना, अब्रह्मचारी का ससर्ग न करना इत्यादि ब्रह्मचारी के लिए अकरणीय दूसरी अनेक प्रकार की क्रियाओ का इन दस स्थानों मे समावेश किया गया है। सूत्रकार कहते है कि पूर्वोक्त निषिद्ध प्रवृत्तियों में से कोई भी प्रवृत्ति करनेवाला ब्रह्मचारी अपना ब्रह्मचर्य तो गवायेगा ही, साथ ही उसे कामजन्य मानसिक और शारीरिक रोगो के होने की भी सभावना रहती है। ५. ब्रह्मचर्य के स्वरूप को विविधता और उसकी व्याप्ति ऊपर दी गई दूसरी व्याख्या के अनुसार 'कामसंग का त्याग' रूप ब्रह्मचर्य का जो भाव सामान्य लोग समझते है उसकी अपेक्षा बहुत सूक्ष्म और व्यापक भाव जैन शास्त्रो मे लिया गया है। जब कोई व्यक्ति जैनधर्म की मुनिदीक्षा लेता है तब उस व्यक्ति के द्वारा ली जानेवाली पाँच प्रतिज्ञाओं में से
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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