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________________ जैनधर्म का प्राण १२५ सन्तोष आदि विधिमार्ग निष्पन्न होते है । इतने विवेचन पर से यह ज्ञात होगा कि जैन दृष्टि के अनुसार कामाचार से निवृत्ति तो अहिंसा का मात्र एक अश है और उस अश का पालन होते ही उसमे से ब्रह्मचर्य का विधिमार्ग प्रकट होता है । कामाचार से निवृत्ति वीज है और ब्रह्मचर्य उसका परिणाम है। ___ भगवान महावीर का उद्देश्य उपर्युक्त निवृत्ति धर्म का प्रचार है। इससे उनके उद्देश्य में जातिनिर्माण, समाजसगठन, आश्रमव्यवस्था आदि को स्थान नही है । लोकव्यवहार की चालू भूमिका मे से चाहे जो अधिकारी अपनी शक्ति के अनुसार निवत्ति ले और उसका विकास साधे तथा उसके द्वारा मोक्ष प्राप्त करे-इस एकमात्र उद्देश्य से भगवान महावीर के विधि-निषेध है। इसलिए उसमे गृहस्थाश्रम या विवाहसस्था का विधिविधान न हो यह स्वाभाविक है । विवाहसस्था का विधान न होने से उससे सम्बन्ध रखनेवाली बाते भी जैन आगमो मे नही आती। कुछ मुद्दे जैन सस्था मुख्य रूप से त्यागियो की सस्था होने से और उसमे कमोबेश मात्रा मे त्याग का स्वीकार करनेवाले व्यक्तियो का प्रमुख स्थान होने से ब्रह्मचर्य से सम्बन्ध रखनेवाली पुष्कल जानकारी प्राप्त होती है । यहाँ ब्रह्मचर्य से सम्बन्ध रखनेवाले कतिपय मुद्दे लेकर जैन शास्त्रों के आधार पर कुछ लिखने का विचार है । वे मुद्दे इस प्रकार है : (१) ब्रह्मचर्य की व्याख्या, (२) ब्रह्मचर्य के अधिकारी स्त्री-पुरुष, (३) ब्रह्मचर्य के अलग निर्देश का इतिहास, (४) ब्रह्मचर्य का ध्येय और उसके उपाय, (५) ब्रह्मचर्य के स्वरूप की विविधता और उसकी व्याप्ति, (६) ब्रह्मचर्य के अतिचार, (७) ब्रह्मचर्य की निरपवादता । १. व्याख्या जैन शास्त्रो मे ब्रह्मचर्य की दो व्याख्याएँ उपलब्ध होती है। पहली व्याख्या बहुत विशाल और सम्पूर्ण है। उस व्याख्याके अनुसार ब्रह्मचर्य यानी १. सूत्रकृतागसूत्र श्रु० २, अ० ५, गा०१।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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