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________________ १२२ जैनधर्म का प्राण हम यह देखते हैं कि बुद्ध का देहदमन-विरोध बौद्ध सघ में सुकुमारता में परिणत हो गया है, जबकि महावीर का बाह्य तपोजीवन जैन-परपरा में केवल देहदमन मे परिणत हो गया है, जो कि दोनो सामुदायिक प्रकृति के स्वाभाविक दोष हैं, न कि मूलपुरुषो के आदर्श के दोष । (द० औ० चि० ख० २, पृ० ५३३-५३६) भगवान महावीर ने तप की शोध कुछ नयी नही की थी; तप तो उन्हें कुल और समाज की विरासत मे से ही मिला था। उनकी शोध यदि हो तो यह इतनी ही कि उन्होने तप का-कठोर से कठोर तप का, देहदमन का और कायक्लेश का आचरण करने पर भी उसमें अन्तर्दृष्टि का समावेश किया, अर्थात् बाह्य तप को अन्तर्मुख बनाया। प्रसिद्ध दिगम्बर तार्किक समन्तभद्र की भापा में कहे तो भगवान महावीर ने कठोरतम तप किया, परन्तु इस उद्देश्य से कि उसके द्वारा जीवन मे अधिकाधिक झाका जा सके, अधिकाधिक गहराई मे उतरा जा सके और जीवन का आन्तरिक मैल दूर किया जा सके । इसीलिए जैन तप दो भागो मे विभक्त होता है : एक बाह्य और दूसरा आभ्यतर। बाह्य तप मे शरीर से सम्बद्ध और आँखो से देखे जा सके वैसे सभी नियमन आ जाते है, जबकि आभ्यन्तर तप मे जीवनशुद्धि के -सभी आवश्यक नियम आ जाते है । भगवान दीर्घतपस्वी कहलाये वह मात्र बाह्य तप के कारण नही, परन्तु उस तप का अन्तर्जीवन में पूर्ण उपयोग करने के कारण ही यह बात भूलनी नही चाहिए। तप का विकास भगवान महावीर के जीवन-क्रम मे से अनेक परिपक्व फल के रूप में जो हमें विरासत मिली है उसमें तप भी एक वस्तु है । भगवान के पश्चात् आज तक के २५०० वर्षो मे जैन सघ ने जितना तप का और उसके प्रकारों का सक्रिय विकास किया है उतना दूसरे किसी सम्प्रदाय ने शायद ही किया हो। २५०० वर्षों के इस साहित्य मे से केवल तप और उसके विधानों से सम्बद्ध साहित्य को अलग छॉटा जाय, तो एक खासा अभ्यासयोग्य भाग तैयार -हो सकता है। जैन तप केवल ग्रन्थो मे ही नही रहा, बल्कि वह तो चतुर्विध
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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