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________________ १०८ जैनधर्म का प्राण मानवजाति की सेवा करने को प्रवृत्ति अब तक हमने पशु, पक्षी तथा दूसरे जीवजन्तुओ के बारे मे ही विचार किया । अब हम मानवजाति की ओर उन्मुख हो । देश मे दानप्रथा इतनी प्रचण्ड रूप से चलती थी कि उसकी वजह से कोई मनुष्य शायद ही भूखा रहता । भयंकर और व्यापक लम्बे आकालो मे जगडूशा जैसे दानी गृहस्थों ने अपने अन्न-भण्डार तथा खजाने खोल दिये थे इसके विश्वस्त प्रमाण विद्यमान है । जिस देश मे पशुपक्षी एव दूसरे क्षुद्र जीवो के लिए करोड़ो रुपयों का खर्च किया जाता हो उस देश में मानवजाति के लिए दयावृत्ति कम हो अथवा तो उसके लिए कुछ भी न किया गया हो ऐसी कल्पना करना भी विचारगक्ति के बाहर की बात है। हमारे देश का आतिथ्य प्रसिद्ध है और यह आतिथ्य मानवजानि का ही उपलक्षक है । देश मे लाखो त्यागी और साधुसन्यासी हो गये है और आज भी है। वे आतिथ्य अथवा मानव के प्रति लोगों की वृत्ति का एक निदान है। अपाहिजो, अनाथों और बीमारी के लिए अधिक से अधिक करने का विधान ब्राह्मण, बौद्ध और जैन शास्त्रों मे आता है, जो तत्कालीन लोकरचि का प्रतिघोप ही है। मानवजाति की सेवा की प्रतिदिन बढती जाती आवश्यकता के कारण तथा पडौसी-धर्म की महत्ता सर्वप्रथम होने से बहुत बार कई लोग आवेशवश एव जल्दबाजी मे अहिसाप्रेमी लोगो को ऐमा कह देते है कि उनकी अहिसा चीटे-चॉटे और बहुत हुआ तो पशु-पक्षी तक गई है, मानवजाति तथा देशबन्धुओ तक उसका बहुत कम प्रसार हुआ है । परन्तु यह विधान योग्य नही है इसके लिए नीचे की बाते पर्याप्त समझी जायेगी। (१) प्राचीन और मध्यकाल को एक ओर रखकर यदि अन्तिम सौ वर्षों मे छोटे-बडे और भयकर अकालो तथा दूसरी प्राकृतिक आपत्तियो को लेकर उस समय का इतिहास देखे, तो उनमे अन्न-कष्ट से पीड़ित मनुष्यो के लिए अहिसा-पोषक सघ की ओर से कितना-कितना किया गया है ! कितना अन्न वॉटा गया है | औषधोपचार और कपडो के लिए भी कितना किया गया है ! उदाहरणार्थ वि. स. १९५६ का अकाल ले, जिसका ब्योरा प्राप्त किया जा सकता है। (२) अकाल या वैसी कोई दूसरी प्राकृतिक आपत्ति न हो उस समय
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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