SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ जैनधर्म का प्राण प्रत्येक पन्थ के लोगो पर कितना पड़ा होगा इसकी कल्पना करना मुश्किल नही है। राजकीय आदेशों द्वारा अहिंसा के प्रचार का यह मार्ग अशोक के आगे रुक गया हो ऐसी बात नही है। उसके पौत्र और प्रसिद्ध जैन राजा सम्प्रति ने उस मार्ग का अनुसरण किया था और अपने पितामह की अहिसा की भावना को उसने अपने ढग से और अपनी रीति से खुब पोसा था। राजा, राजकुटुम्ब और बडे-बडे अधिकारी अहिसा के प्रचार की ओर उन्मुख हो इस पर से दो बाते सहज भाव से ज्ञात होती है। एक तो यह कि अहिसाप्रचारक सघो ने किस हद तक प्रगति की थी कि जिसका असर महान् सम्राटो पर भी पडा था, और दूसरी बात यह कि लोगो को अहिसा-तत्त्व कितना रुचिकर हुआ था अथवा उनमे दाखिल हुआ था कि जिसके कारण वे अहिंसा की घोषणा करनेवाले ऐसे राजाओ का बहमान करने लगे थे । कलिगराज आर्हत सम्राट् खारवेल ने भी इस दिशा मे खूब प्रयत्न किये होगे ऐसा उसके कार्यो पर से लगता है। ___ बीच-बीच मे बलिदानवाले यज्ञ के युग मानवप्रकृति मे से उदित होते गये ऐसा इतिहास स्पष्ट कहता है, फिर भी सामान्य रूप से देखने पर भारत मे तथा भारत के बाहर उपर्युक्त दोनो अहिंसाप्रचारक सघो के कार्य ने अधिक सफलता प्राप्त की है। दक्षिण एव उत्तर भारत के मध्यकालीन जैन और बौद्ध राजाओ तथा राजकुटुम्बो एव अधिकारियो का सर्वप्रथम कार्य अहिसा के प्रचार का ही रहा होगा ऐसा मानने के अनेक कारण है। ___ कुमारपाल और अकबर पश्चिम भारत के प्रभावशाली राज्यकर्ता परम आर्हत कुमारपाल की अहिसा तो इतनी अधिक प्रसिद्ध है कि बहुत-से लोगो को वह आज अतिशयतापूर्ण लगती है । मुगलसम्राट अकबर का मन जीतनेवाले त्यागी, जैन भिक्ष हीरविजयसूरि और उनके अनुगामी शिष्यों द्वारा बादशाहो के पास से अहिंसा के बारे मे प्राप्त किये गये फरमान सदा के लिए इतिहास मे अमर रहेगे । इनके अतिरिक्त राजाओ, जमीदारो, उच्च अधिकारियो तथा गॉव के अगुओ की ओर से भी हिसा न करने के जो वचन दिये गये थे वे यदि हम प्राप्त कर सके तो इस देश मे अहिसाप्रचारक सघ ने
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy