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________________ जैनधर्म का प्राण शमन या क्षीण करने का कार्य होता है वह अवस्था अनिवृत्तिबादर है। (१०) जिस अवस्था मे मोहनीय का अश लोभ के रूप मे ही उदयमान होता है और वह भी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा मे, वह अवस्था सूक्ष्मसम्पराय है । (११) जिस अवस्था मे सूक्ष्म लोभ तक उपशान्त हो जाता है वह उपशान्तमोहनीय है । इस गुणस्थान मे दर्शनमोहनीय का सर्वथा क्षय सम्भव है, परन्तु चारित्रमोहनीय का वैसा क्षय नही होता, केवल उसकी सर्वाशतः उपशान्ति होती है। इसके कारण ही मोह का पुन उद्रेक होने पर इस गुणस्थान से अवश्य पतन होता है और प्रथम गुणस्थान तक जाना पडता है। (१२) जिस अवस्था मे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का सर्वथा क्षय हो जाता है वह क्षीणमोहनीय है । इस स्थिति से पतन की सम्भावना ही नही रहती। . (१३) जिस अवस्था मे मोह के आत्यन्तिक अभाव के कारण वीतरागदशा के प्राकटय के साथ सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है वह अवस्था सयोगगुणस्थान है। इस गुणस्थान मे शारीरिक, मानसिक और वाचिक व्यापार होते है। इससे इसे जीवन्मुक्ति कह सकते है। (१४) जिस अवस्था मे शारीरिक, मानसिक और वाचिक प्रवृत्तियों का भी अभाव हो जाता है वह अयोगगुणस्थान है। यह गुणस्थान अन्तिम है । अतः शरीरपात होते ही इसकी समाप्ति होती है और उसके पश्चात् गुणस्थानातीत विदेहमुक्ति प्राप्त होती है। प्रथम गुणस्थान अविकासकाल है । दूसरे और तीसरे इन दो गुणस्थानों में विकास का तनिक स्फुरण होता है, परन्तु उसमें प्रबलता अविकास की ही होती है। चौथे से विकास क्रमश बढता-बढता वह चौदहवें गुणस्थान मे पूर्ण कला पर पहुंचता है और उसके बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है । जैन विचारसरणी का पृथक्करण इतना ही किया जा सकता है कि पहले के तीन गुणस्थान अविकासकाल के है और चौथे से चौदहवें तक के गुणस्थान विकास एव उसकी वृद्धिकाल के है ; उसके पश्चात् मोक्षकाल है। १. देखो दूसरे कर्मग्रन्थ की मेरी प्रस्तावना तथा व्याख्या ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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