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________________ 故 भाषार्थ - जिसके उदय से लोक पूजित कुलों में जन्म हो उस का नाम नीच गोत्र कारण कर्म का नाम उच्च गोत्र है तथा इसके विपरीत निंदित कुलों में जिस कारण मे जन्म हो उस कार है। इससे श्री जाति की उच्चता नोचता प्रकट [१३] होतो है । दुब्भाव सुइ सूगयपुबई जाइसंकरादीहि । कदाणा व कुपत्ते जीवा कुणरेसु जांयते ।। [ त्रिलोक सार गाथा ६१४ ] अर्थात् दुर्भाव से, अपवित्रता से, सूतकावस्था में अथवा रजस्वला स्त्री द्वारा, जातिसंकर द्वारा अथवा इसी प्रकार के अन्य लोगों द्वारा कुपात्र में दान भी दिया जाय तो देने वाले मानव कुमार्ग भूमि के कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । यह भी जातिसंकरता को दोष बतलाया है अर्थात् जाति संकर आहार दान भी दे तो जाति संकरता के कारण कुभोगभुमि 'कुमनुष्य होता है । में [१४] श्रावकाचार में वर्णन है कि कुलजातिक्रियामंत्रः समाय सधर्मणे । भूकन्याहे भरत्नाश्वरथदानादि निर्वपेत् ॥ २०२ ॥ इस प्रमाण से भी सुस्पष्ट है जो जाति से समान हो यथात् जातीय हो उसे ही कन्या देनी चाहिये ।
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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