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________________ इसमें भी स्वजाति की ही परिणीता कन्या को 'धर्मपत्नी' कहा है। (१०) मानव जाति के एक भेद रूप क्षत्रिय जाति बीज वृक्ष के समान अनादि पतलाई है। तीर्थकर भगवान क्षत्रिय जाति में ही होते हैं और तीर्थकर अनादिकाल से होते आये हैं । विदेह क्षेत्र में तो सदैव २० बीस तीर्थकर रहत हैं: रक्षणाभ्युद्यता येऽत्र क्षत्रियाः स्युस्तदन्वयाः । सोऽन्वयो ऽनादिसंतत्या बीजवृक्षवदिप्यते ।। ११ ।' विशेषतस्तु तत्सर्गः क्षेत्रकालव्यपेक्षया । तषां समुचिताचारः प्रजार्थे न्यायवृत्तिता ।। १२ ।। __ (श्रा' पु० पर्व ४२) भरतादि क्षेत्र में भी वर्ण व्यवस्था सर्वथा नष्ट नहीं होती किन्तु काल दोष से कभी कभी अप्रकट रहता है । विदह क्षेत्र में सदैव विद्यमान रहती है। क्षत्रचूड़ामणि नामक ग्रंथ के द्वितीय लम्ब में वर्णन है कि नन्दगोप ग्वाले ने अपनी कन्या को जीवंधर राजा को देना चाहा था परन्तु जीवन्धर ने उसे पद्मास्य के योग्य समझकर उसके साथ विवाह करा दिया क्योंकि नन्दगोप की जाति जीवन्धर के अनुकूल न थी।
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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