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________________ अनेक स्वार्थों से, विजातीय दंपति में भी कुछ पाय आकर्षण हो सकता है परन्तु आन्तरिक आकर्षण वहां भी नहीं होता। प्रायः विजातीय दंपतियों में कलह-राज्य ही देखा जाता है। अभी कुछ दिन पहले एक खंडेलवाल जातीय सज्जन आये थे जो कहते थे कि मैंने कुछ लोगों के बहकाने से एक सेतवाल जातीय लड़की से विवाह कर लिया. परन्तु मैं महा दुःखी हूं और अब तो वह मेरे पास रहना भी नहीं चाहती। मेरे और उसके प्राचार विचार में भी अंतर हैं। इसी प्रकार जिन्होंने भी विजातीय संबंध किये हैं उनको संतुष्ट और सुखी नहीं देखा । विजातीय विवाह से पारलौकिक और ऐहलौकिक दोनों ही जीवन सुखमय नहीं होते, प्रायः देखने सुनने से ऐसा ही समझ में आया है। निश्चित रूप से यही देखा गया है कि यद्वा तदा विषय भोगों की प्रवृत्ति करने के लिए यद्वा तवा विवाह-सम्बन्ध जारी करने के पूर्व ही, जनतो अधिक न उत्तेजित न होजाय, इसलिए समान धर्मता की मधुरता से उस विष को लिप्त किया गया है बाकी ध्येय और लक्ष्य तो वही है जिसके अनेक उदाहरण भी सामने विद्यमान हैं। जो लोग विवाह सम्बन्ध में सजातीयता की बात कहते थे, उन्होंने स्वयं विधर्मियों में दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित किया और जिन अन्यान्य लोगों ने किया, उनको प्रोत्साहन और समर्थन भी दिया इसलिए यह अंगुली पकड़ते २ पहुँचा पकड़ने की तरकीब है।
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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