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________________ ५६ अनंत वीर्य का लाभ हो जाना है। उन उपायों को छोड़ना अथवा आडम्बर समझकर उनकी खिल्ली उड़ाना और उस भावात्मक स्वरूप के जबानी गीत गाना देश को महागर्त में ढकेलना है । जैसे हिंसा हिंसा पुकारना और मांस मदिरा आदि का उपभोग करना, कोई ईमानदारी की चीज नही । श्रहिसा का पालन करना होगा तो मांस मदिरा हि प्राण घातोत्थ पदार्थों का त्याग करना ही होगा । मासादि, प्राणि- हत्या के बिना उत्पन्न नहीं होते अतः जीव दया भी अपने आप धर्म का स्वरूप होजाता है । यदि जीव दया अभीष्ट है तो जीव दया के विरोधी जितने भी साधनोपसाधन हैं उनसे भी अलग होना ही पड़ेगा । जैसे रात्रि भोजन से जीव दया में बाधा आती है तो उसे छोड़ना ही पड़ेगा, जिन फलों में त्रस जीव रहते हैं, ऐसे उदंबर फलों का त्याग करना ही पड़ेगा । परदार और परधन के ग्रहण से असत्य भाषणा दी करने की नौबत आती है अतः इनको भी छोड़ना ही पड़ेगा । बिना ने पानी पीने से जीव हिंसा होती है तो बिन बने पानी पीने का भी त्याग करना ही पड़ेगा। इस प्रकार धर्मोपलब्धि के जो उपाय हैं उनका पालन करना भी धर्म ही है । जो इन धर्मों के साधनों की उपेक्षा करते हैं वे स्वरूपोलब्धि भावना से कोसों दूर बैठे हुये हैं । वस्तुस्वभावोपलब्धि रूप साधनों का पान्नन, विना जाति के नहीं हो सकता । जैसे जैन कुलोत्पन्न वालक प्रारम्भ से ही जातीय
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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