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________________ जड़ वस्तुओं की प्राप्ति और उन्नति के लिये तो प्रयत्न करना और समभाव का जो कि सर्वथा बीतरागतामय होता है, का नाम लेना पर्याप्त धोखा देना है । ऐसी बातों से संसार में समभाव का आभास भी नहीं होता। आज ऐसा कौनसा व्यक्ति है जो अपने खास पुत्र और साधारण अन्य मनुष्य में प्रत्येक बात में ही समानता रखता हो ? ऐसे महापुरुप तो अतीत-संसार बीतरागी निम्रन्थ वे साधु ही हो सकते हैं कि जिनके शरीर तक पर एक नंतु भी नहीं है और जिनके पास रंचमात्र भी परिग्रह नहीं है। सर्वथा परिपहलीन और सांसारिक विषयों में तस्पर हो कर भी सबको समान समझने की बात कहना घोर छद्म है । जातिभेद और देश की परतन्त्रता । जाति पांति के विरोधी अर्थान् अनर्गल भोग प्रवृत्ति के इच्छुक जातिभेद को देश की परतंत्रता में कारण मानते और जनता को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं परन्तु वास्तव में देश को परतंत्रता और दुर्दशा का कारण स्वार्थ बुद्धि और रागद्वपादि कषाय हो हैं । जाति भेद अनादि काल से चला आया है और चलता भी रहेगा। भारत केवल २०० वर्ष से पराधीन था। यवनकाल के पूर्व भारत पर भारतीय शासन था अर्थात् भारत पर भारतीयों का ही शासन था जिसका इतिहास साक्षी है । यवन भी भारतीय ही माने जाते हैं । यदि यवन, भारतीय न थे तो भारतवर्ष का
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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