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________________ ४५ Mon नामका भी व्रत है | भोगोपभोग परिमाण का यह प्रयोजन है कि भोग और उपभोग की सामग्रियों का परिमारण कर लेना चाहिये । यदि मानव मात्र में ही नारी - ग्रहण के लिये स्पर्शन इंद्रिय का व्यापार और व्यवहार किसी भी प्रतिबन्ध के बिना रक्खा जाय तो भोगोपभोग परिमाण व्रत नहीं रह सकता इसलिये यह निश्चित करना मान के लिये आवश्यक है कि अमुक वर्ग के व्यक्तियों में से ही किसी की लड़की से विवाह करना । उसी वर्ग का नाम जाति शब्द से व्यवहृत होता है । आजकल भी देखा जाता है कि एक शिक्षित युवक शिक्षित युवती सेही विवाह करना चाहनाहै तो शिक्षितों शिक्षितों की एक जाति हो जायगी । एक धनिक लड़के का पिता धनिक की लड़की से ही विवाह करना चाहता है, तो धनिकों धनिकों की एक जाति वन जायगी। मानव का यह स्वभाव है कि समान शील व्यसन व्यक्तियों से ही वह पारस्परिक व्यवहार चाहता है । समान शील व्यसन व्यक्तियों के समूह का नाम ही जाति है । वास्तव में जातीयता के बिना कोई रह नहीं सकता । जातीयताका विरोध करना प्रकृति से अमफल युद्ध करना है । यहभी अनुचित एवं भूल भरा कार्यही कहा जायगा कि एक जाति को मिटाकर दूसरी जाति स्थापित की जाय । यदि हम केवल अपने स्वार्थ वश मनमाने तौर पर ऐसी ऐसी जातियों की रचना करते रहें और पुरानी को मिटाते रहें तो दुर्व्यवस्था
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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