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________________ - ४० - शास्त्रकार महर्षियों वाक्यों की तथा प्राचीन शास्त्रों की अवहेलना की जाती है, माता पिता तथा गुरुजनों का तिरस्कार किया जाता है, जाति बंधन तोड़े जाते हैं, भक्ष्या भक्ष्य पेयापेय का विचार छोड़ा आता है, स्त्री परिप्रहमें जाति पांतिका विचार छोड़ा जाता है। तब इन सब बातों का परिणाम दुराचारों का फैलनाही है । घूसखोरी, चोर बाजारी आदि अनर्थ दुराचारों की भावना केही फल स्वरूप है | अधिक लोभ इसीलिए होता है कि अनर्गल विषय भोगोंकी प्राप्तिमें धनकी कमी कारण न बन जाय तभी वह व्यक्ति औचित्य अनौचित्यका विचार न कर अनर्गल प्रवृत्ति करता है । भारतवर्ष में अग्रेजों ने आकर भारतवासियों को यह पढ़ाया और समझाया कि जातिभेदनेही तुम्हारा नाश किया है । चूंकि शिक्षा भी जो के ही हाथमें थी और शासन भी उन्हीं के हाथमें | अपनी शिक्षासे भारतवासियों को ऐसा प्रभावित किया कि वे उसी शिक्षा दीक्षा में इतने संलग्न होगये कि प्रत्येक बात श्रख मकर, कान बदकर, हृदयके कपाट जुड़ कर, मानने लगे । 'जों ने यहभी सिखलाया और पढ़ाया कि तुमारे सब शास्त्र सब रिवाज पूर्वज आदि रही और निकम्मे थे । प्राचीन महर्षियों, रीतिरिवाज और पूर्वजों में एक तो चाकपिक्य नहीं था, इस के अतिरिक्त उनके तत्वों को समझाने वाले भी यातो अकर्मण्य होगये या नये रंग में रंग गये या केवल स्वार्थी बन गये । फलतः जनता
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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