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________________ १३ - यह उपदेश दिया गया है। यहां प्रारंभ और अन्त में दोनों ही जगह 'जातिमात्र' पद आया है जिससे पूर्णतः स्पष्ट है कि स्वदार संतोष शील सत्य शौच आदि से हीन होने पर भी जो केवल ब्राह्मण माता पिता के यहां जन्म मात्र लेने के कारण अपने को उच्च मानता था और सत्य शौचादि धारियों का अपमान करता था ऐसे ब्राह्मण का ब्राह्मण्य मद नष्ट कर सत्य शौचादि की ओर प्रवृत्त करने के लिए यह कहा गया है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जाति कोई वस्तु ही नहीं । जाति वस्तु अवश्य है परन्तु केवल जाति से ही कोई ऊंचा बन जाय, यह कदापि नहीं होसकता । उच्च जाति भी उच्चता में कारण है परन्तु उसमें उच्चता बनी रखने के लिए सत्य शौच शीलादि का पालना भी परम आवश्यक है। यह सब बातें उक्त प्रमाणों ही प्रमागित होती हैं। "गुणैः संपयते" अदि श्लोक से स्पष्ट प्रकट है कि गुणों से जाति संपत्तिशालिनी होती है और गुणनाश से विपत्ति शालिनी होजाती हैं अर्थात् जाति के साथ गुण भी होने चाहिये । इसका यह अर्थ नहीं कि जाति कोई वस्तु ही नहीं, जाति ही न होती तो वह गुणों से संपति शालिनी भी कैसे होती ? : दीवार पर ही तो चित्र लिखे जा सकते हैं ? ; इस प्रमाण से जाति मात्र का मद अवश्य निंदित और खंडित होता है किन्तु जाति भेद नही । जब जैन सिद्धान्त में उच्चगोत्र और गोत्र ऐसे गोत्र कर्म के दो भेद माने गये हैं तो उच्चता
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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