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________________ - १० - और मुनिदानादि धार्मिक परंपराओं को अविच्छिन्न बनी रखने के लिए जिसके पुत्र नही हैं उसके पुत्र की आवश्यकता भी है और यहां तक कहा गया है कि 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' अर्थात् पुत्र रहित की सद्गति नहीं होती। इसी धारणा से तो अपुत्र लोग दत्तक तक लेते है। यदि एकान्त से पुत्र को अनावश्यक और बुरा ही मान लिया जाय तो वह चीज व्यावहारिक नहीं हो सकतो और न पारमार्थिकता ही नियत रह सकती। पूज्य पाद महा महनीय प्राचार्यवर्य श्री सोमहव सूरि ने अपने यशस्तिलक नामक ग्रंथ में पुत्र को नरक का हेतु भी बतलाया है तो पुत्र की आवश्यकता भी ब- लाई हैं: तग्देहं वनमेव यत्र शिशवः खेलंत न प्रांगणे तेषां जन्म वृथैव लोचनपथं याता न येषां सुताः । तेषामंगविलेपनं च नृपते ! पंकोपदेहै: समं येषामङ्गविधूसरात्मज रजश्चर्षा न वक्षःस्थले ।। भावार्थ-हे राजन् ! वह घर जंगल ही हैं जिसके कि आंगन में बच्चे नहीं खेलते । उनका जन्म ही व्यर्थ हैं जिन्हें पुत्र दृष्टिगोचर नहीं हुए। जिनके शरीर के वक्षःस्थल पर खेलते हुये बच्चों की मिट्टी धूल नहीं लगी और जो केवल अपने शरीर पर चंदनादि का लेपन करते हैं तो उस रज के बिना उस चंदनादि लेपन को कीचड़ के लेपन के समान ही कहना चाहिये। यह है प्रवचन की प्रणाली और प्रवचन में उद्देश्य की
SR No.010348
Book TitleJain Dharm aur Jatibhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndralal Shastri
PublisherMishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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