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________________ जनधर्म विभाजित करके एक भाग जिनेन्द्रके लिये, दूसरा भाग श्वेताम्बर श्रमणसंघको तीसरा भाग दिगम्बर श्रमण संघके लिये प्रदान किया था । आठवें वर्ष में उसने पलासिका नामक स्थानमें एक जिनालय बनवाकर कुछ भूमि यापनीयोंके तथा नियंर्थ सम्प्रदायके कूर्चकोंके लिये प्रदान की थी । मृगेशवर्मा के तीन बेटोंमें से रविवर्मा उसका उत्तराधिकारी हुआ । सेनापति श्रुतकीर्तिके पौत्र जयकीर्तिने कदम्ब राजाओंके द्वारा परम्परासे प्राप्त पुरुखेटक गांव रविवर्माकी आज्ञासे यापनीय संघके कुमारदत्त प्रमुख आचार्योंको दानमें दे दिया । रविवर्माका राज्यकाल साधारणतः सन् ४७८ से ५१३ ई० के लगभग माना जाता है । रविवर्माका उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा हुआ। उसने अपने राज्यके चतुर्थ वर्षमें अपने चाचा शिवरथके उपदेशसे पलाशिका में सिंहसेनापतिके पुत्र मृगेशवर्माके द्वारा निर्मार्पित जैन मन्दिरको अष्टाह्निका पूजाके लिये तथा सर्वसंघके भोजनके हेतु कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघके हाथमें वसुन्तवाटक प्राम दानमें दिया । तथा अपने राज्यके पांचवे वर्ष में राजा भानुवर्मा की प्रार्थनापर अहिरिष्ट नामक दूसरे श्रमण संघके लिये मरदे नामक गांव दानमें दिया । हरिवर्माका राज्यकाल सन् ५१३ से ५३४ ई० में माना जाता है । ५८ ५. चालुक्य वंश इस वंशकी एक शाखा, जिसे पश्चिमी चालुक्य कहा जाता है, वातापी (बादामी ) नामक स्थानमें ६ वीं ईस्वीसे ८ वीं ईस्वी तक राज्य करती रही। पीछे दो शताब्दी बाद १०वीं से १२ वीं तक कल्याणी नामक स्थान से शासन करती रही । पूर्वी चालुक्य नामसे प्रसिद्ध दूसरी शाखा आन्ध्रप्रदेशके वेंगी नामक स्थानसे ७ वीं शताब्दीसे ११-१२ वीं शताब्दी तक राज्य करती रही ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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