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________________ ३८४ विविध ११ जहि भावइ तहिं जाहि जिय भावइ करितं जि । केम्वह मोक्खु ण अत्थि पर चित्तइ सुदिए णजि ॥-योगीन्दु । अर्थ हे जीव ! तू चाहे जहाँ जा और चाहे जो क्रिया कर, परन्तु जब तक तेरा चित्त शुद्ध न होगा, तबतक किसी तरह भी तुझे मोक्ष नहीं मिल सकता। १२ जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया । विसकंटको व्व हिंसा परिहरिदव्वा तदो होदि ॥-शिवार्य । अर्थ-वास्तवमें जीवोंका वध अपना ही वध है और जीवोंपर दया अपनेपर ही दया है। इसलिए विषकण्टकके समान हिंसाको दूरसे त्याग देना चाहिये। १३ रायदोसाइदोहिं य डहुलिंज्जइ णेव जस्स मणसलिलं । सो णिय तच्चं पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ ॥-देवसेन । अर्थ-जिसका मनोजल राग द्वेष आदिसे नहीं डोलता है, वह आत्मतत्त्वका दर्शन करता है और जिसका मन रागद्वेषादिक रूपी लहरोंसे डाँवाडोल रहता है उसे आत्मतत्त्वका दर्शन नहीं होता। संस्कृत १४ आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः संपदां मार्गों येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ अर्थ-'इन्द्रियोका असंयम आपदाओंका-दुःखोंका मार्ग है। और उन्हें अपने वशमें करना सम्पदाओंका-सुखोंका मार्ग है। इनमेंसे जो तुम्हें रुचे, उस पर चलो।' १५ हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुतौ । –वादीभसिंह । अर्थ-यदि शास्त्रोंको पढ़कर हेय और उपादेयका ज्ञान नहीं हुआ, किसमें आत्मका हित है और किसमें आत्मका अहित है
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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