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________________ विविध ३७५ प्रतिपादन कर सकते हैं । किन्तु यदि कोई ठेठ वैदिकधर्मके अनुसार श्रौतकर्म करनेवाला सोमयाग करनेको तत्पर हो तो हिन्दू उसको तिरस्कारपूर्वक निकाल दें और स्लाटर हाउसमें पशु वध करनेवाले कसाईकी तरह उसकी दुर्गति करें' । मेहताजीके उक्त विवेचनसे भी यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणधर्म में दूसरोंकी बातोंको अपनानेकी अद्भुत शक्ति है । और उत्तरकालीन उपनिषदोंके द्वारा बौद्धोंके अनेक मन्तव्योंको इस प्रकारसे अपनेमें सम्मिलित कर लिया गया मानों वह उपनिषदोंकी ही वस्तु हो । ( सर राधाकृष्णन्का भी मत है कि कुछ उपनिषदोंकी रचना बुद्धके बादमें भी हुई है।) इससे भी हमारे उक्त विश्वासकी ही पुष्टि होती है। अतः उपनिषदोंमें जो जैन आचार विचारका पूर्व रूप पाया जाता है, उससे यह निर्णय करना कि जैनधर्म 'उपनिषदोंसे निकला है और इसलिये वह हिन्दू धर्मकी विद्रोही सन्तान है, सर्वथा भ्रान्त है । जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म है । उसके आद्य तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेव थे जो राम और कृष्णसे भी पहले हो गये हैं और जिन्हें हिन्दुओंने विष्णुका अवतार माना है। उन्हींके विचारोंकी झलक उपनिषदों में मिलती है। जैसा कि "उपनिषद विचारणा' के निम्न शब्दोंसे भी स्पष्ट हैं "उपनिषदोंना छेवटना भागमाँ वेद-वाह्य विचारवाला साधुओंना आचारविचारो अरण्यवासिओंमा पेठेला जणाय छे, अने तेमाँ जैन अने बौद्ध सिद्धान्तोंना प्रथम बीजे उग्याँ होय ऐम जणाय छे। उदाहरण तरीके "सर्वजीव ब्रह्मचक्रमाँ हंस एटले १. जर्मन विद्वान् ग्लैजनपने अपने जैनधर्म नामक ग्रन्थमें लिखा है कि प्रो० हर्टलेका कहना है कि ब्रह्मलोक और मुक्तिविषयक जैन भावना उपनिषदोंकी भावना से जुदी प्रकारकी है और ये दोनों समान नहीं हो सकतीं । दोनोमें जो समानता है वह केवल शाब्दिक है । २. पृ० २०१ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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