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________________ विविध ३७१ और राम तथा कृष्णको ईश्वरका अवतार मानकर मनुष्यमें देवत्वकी प्रतिष्ठासे आकर्षित होनेवाली जनताको उधर आकृष्ट होनेसे रोका । जैन और बौद्धधर्ममें स्त्री और शूद्रको भी धर्माचरणका अधिकार था जब कि वेदोंका पठन-पाठन तक दोनोंके लिये वर्जित था। इसकी पूर्ति भी महाभारतने की। जनताकी रुचि अहिंसाकी ओर 'स्वतः नहीं बल्कि वेदविरोधी उक्त धर्मोके कारण बढ़ रही थी और उन्होंके कारण पशुयाग उसके लिये आलोचना और घृणाका विषय बन रहा था। महाभारतमें एक कथाके द्वारा पशुयज्ञको बुरा बतलाकर हवियज्ञको ही श्रेष्ठ बतलाया गया है । नारायणखंडमें बतलाया कि वसुने हवियज्ञ किया। उससे प्रसन्न होकर विष्णुने यज्ञ द्रव्यको प्रत्यक्ष होकर स्वीकार किया। यह सब देखकर ही निष्पक्ष विद्वानोंका यह मत है कि महाभारत श्रमण संस्कृतिसे प्रभावित है। आदान प्रदानकी प्रथा धर्मों में सदासे चली आई है। एक रात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वतर तथा बादके अन्य उपनिपदोंका शवधर्म इसी धार्मिक क्रान्तिके फल है।"-इं० फि० पृ० २७५-७६ । दीवानबहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने भी इसी तरह के विचार प्रकट किये हैं । वे लिखते हैं-'उस समय एक ऐसे धर्मको आवश्यकता थी जो ब्राह्मणधर्मके इस पुनर्निर्माणकालमें बौद्धधर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिको आवश्यकता थी' । -एन्शियंट इण्डिया, पृ० ५८८ । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० ओझाजीने भी लिखा है-"बौद्ध और जैनधर्मके प्रचारसे वैदिकधर्मको बहुत हानि पहुँची। इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा। और वह नये सांचे में ढलकर पौराणिक धर्म बन गया । उसमें बौद्ध और जैनोंमे मिलती धर्मसम्बन्धी बहुतसी नई वातोंने प्रवेश किया। इतना ही नहीं, किन्तु बुद्धदेवकी गणना विष्णुके अवतारोंमें हुई और मांसभक्षणका थोड़ा बहुत निषेध करना पड़ा।" राजपूतानेका इतिहास, प्र. खं० १०-११ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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