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________________ सामाजिक रूप ३१५ विषद्वारा मुहम्मदशाहकी मृत्यु होनेपर लोंकाशाहको बहुत खेद हुआ। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्य में लग गये । उनके सुन्दर अक्षरोंसे आकृष्ट होकर ज्ञानश्री नामक मुनिराजने दश वैकालिक सूत्रकी एक प्रति लिखनेके लिये दी । फिर तो मुनिश्री के पाससे अन्य शास्त्र भी लिखने के लिये आने लगे । और वे उनकी दो प्रतियाँ करके एक अपने पास रखने लगे। इस तरह अन्य ग्रन्थोंका भी संग्रह करके लोंकाशाहने उनका अभ्यास किया । उन्हें लगा कि आज मन्दिरोंमें जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह तो इन ग्रन्थोंमें नहीं है । इसके सिवा जो आचार आज जैनधर्म में पाले जाते हैं उनमेंसे अनेक इन ग्रन्थोंको दृष्टि धर्मसम्मत नहीं हैं। अतः उन्होंने जैनधर्म में सुधार करनेका वीड़ा उठाया । अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी होनेके साथ व्यापारका भी केन्द्र था । अतः व्यक्तियोंका आवागमन लगा ही रहता था । जो वहाँ आते थे लोंकाशाहका उपदेश सुनकर प्रभावित होते थे । जब कुछ लोगोंने उनसे धर्म में दीक्षित करनेकी प्रार्थना की तो लोकाशाहने कहा मैं स्वयं गृहस्थ होकर आपको अपना शिष्य कैसे बना सकता हूँ । तब ज्ञानजी महाराजने उन्हें धर्मकी दीक्षा दी। और उन्होंने लोंकाशाह के नामपर अपने गच्छका नाम लोंकागच्छ रखा | इस तरह लोकागच्छकी उत्पत्ति हुई । पीछेसे लोकामत में भी भेद-प्रभेद हो गये। सूरतके एक जैन साधुने लोकामत में सुधार कर एक नये सम्प्रदायकी स्थापना की जो हँढिया सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पीछेसे लोंकाके सभी अनुयायी हँढिया कहे जाने लगे। इन्हें स्थानकवासी भी कहते हैं, क्योंकि ये अपना सब धार्मिक व्यवहार मन्दिर में न करके स्थानक यानी उपाश्रयमें करते हैं । इस सम्प्रदायक माननेवाले गुजरात, काठियावाड़, मारवाड़, मालवा, पंजाब तथा भारतके अन्य भागोंमें रहते हैं। इनकी संख्या मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके जितनी ही है। अतः इस सम्प्रदायको जैनधर्मका
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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