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________________ ३१२ जैनधर्म करा दी कि इस नगरमें चैत्यवासी साधुओंको छोड़कर दूसरे वनवासी साधु न आ सकेंगे। इस आज्ञाको रद्द करानेके लिए वि० सं० १०७० के लगभग जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि नामके दो विधिमार्गी आचार्योंने राजा दुर्लभदेवकी सभा में चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया तब कहीं विधिमागियोंका प्रवेश हो सका। राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया । इसी परसे खरतर गच्छकी स्थापना हुई। इसके वादसे चैत्यवासियोंका जोर कम होता गया। __ श्वेताम्बरोंमें आज जो जती या श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवासी या चैत्यवासी शाखाके अवशेष हैं और जो 'संवेगी' मुनी कहलाते हैं वे वनवासी शाखाके हैं। संवेगी अपनेको सुविहित मार्ग या विधिमार्गका अनुयायो कहते हैं। श्वेताम्बरों में बहुतसे गच्छ थे। कहा जाता है कि उनकी संख्या ८४ थी। किन्तु आज जो गच्छ हैं उनकी संख्या अधिक नहीं है । मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके गच्छ इस प्रकार हैं १ उपकेशगच्छ-इस गच्छकी उत्पत्तिका सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथसे बताया जाता है। उन्हींका एक अनुयायी केशी इस गच्छका नेता था । आजके ओसवाल इसी गच्छके श्रावक कहे जाते हैं। ___ २ खरतरगच्छ इस गच्छका प्रथम नेता वर्धमान सूरिको बतलाया जाता है। वर्धमान सूरिके शिष्य जिनेश्वर सूरिने गुजरातके अणहिलपुर पट्टणके राजा दुर्लभदेवकी सभामें जब चैत्यवासियोंको परास्त किया और राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया तो उनके नामपरसे यह गच्छ खरतर गच्छ कहलाया। इस गच्छके अनुयायी अधिकतर राजपूताने और बंगालमें पाये जाते हैं । मुंबई प्रान्तमें इसके अनुयायियोंकी संख्या थोड़ी है। ३ तपागच्छ-इस गच्छके संस्थापक श्रीजगच्चन्द्र सूरि थे। सं० १२८५ में उन्होंने उग्र तप किया। इस परसे मेवाड़के राजाने उन्हें 'तपा' उपनाम दिया। तबसे इनका बृहद्गच्छ
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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