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________________ २९० जैनधर्म है वैसे ही श्रोताओंकी हितकामनासे प्रेरित होकर वीतरागके द्वारा हितोपदेश दिया जाता है । इसीलिए उनका उपदेश किसी वर्गविशेप या जातिविशेपके लिए न होकर प्राणिमात्रके लिए होता है । उसे सुननेके लिए मनुष्य-देव, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सभी आते हैं। और अपनी-अपनी रुचि, श्रद्धा और शक्तिके अनुसार हितकी बात लेकर चले जाते हैं । किन्तु जो लोग उनकी बातोंको स्वीकार करते हैं और जो स्वीकार नहीं करते, वे दोनों परस्परमें बँट जाते हैं और इस तरहसे सम्प्रदाय कायम हो जाता है । ___भगवान महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले भगवान् पार्श्वनाथ हो चुके थे। भगवान महावीरके समयमें भी उनके अनुयायी मौजूद थे। उन्हीं में से भगवान महावीरके माता-पिता थे। भगवान महावीरने भी उसी मार्गपर चलकर तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया और उसी मार्गका उपदेश किया। इस तरहसे उनके समयमें समस्त जैनसंघ अभिन्न था। और आगे भी अभिन्न रहा। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें मगधमें जो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, उसने संघभेदको जन्म दिया। दिगम्बरोंकी मान्यताके अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा । उस समय जैन साधुओंकी संख्या बहुत ज्यादा थी। सवको भिक्षा नहीं मिल सकती थी। इस कारण बहुतसे निष्ठावान् दृढ़व्रती साधु श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथ दक्षिण भारतको चले गये और शेष स्थूलभद्रके साथ वहीं रह गये। स्थूलभद्रके आधिपत्यमें रहनेवाले साधुओंने सामयिक परिस्थितियोंसे पीड़ित होकर वस्त्र, पात्र, दण्ड वगैरह उपाधियोंको स्वीकार कर लिया। जब दक्षिणको गया साधुसंघ लौटकर आया और उसने वहाँके साधुओंको वस्त्र, पात्र वगैरहके साथ पाया तो उन्होंने उनको समझाया। मगर वे माने नहीं, फलतः संघभेद हो गया । नग्नताके पोषक साधु दिगम्बर कहलाये और वस्त्र-पात्रके पोषक साधु श्वेताम्बर कहलाये। श्वेताम्बरोंकी मान्यताके अनुसार मगधमें दुर्भिक्ष पड़नेपर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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