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________________ २८६ जैनधर्म होते थे और कुछ अवान्तर आचार्य होते थे । वे सब मिलकर संघका नियमन करते थे । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानकी ओर साधुवर्गका खास तौर से ध्यान दिलाया जाता था । प्रत्येक साधुके लिए यह आवश्यक था कि वह अपने अपराधोंकी आलोचना आचार्यके सन्मुख करे और आचार्य जो प्रायश्चित्त दें उसे सादर स्वीकार करे । प्रतिदिन प्रत्येक साधु प्रातःकाल उठकर अपनेसे बड़ोंको नमस्कार करता था और जो रोगी या असमर्थ साधु होते थे उनकी सेवा-शुश्रूषा करता था । इस सेवा-शुश्रूषा या वैयावृत्यका जैनशास्त्रों में बड़ा महत्त्व बतलाया है और इसे आभ्यन्तर तप कहा है । इसी प्रकार आर्यिकाओंकी भी व्यवस्था थी । दोनोंका रहना वगैरह बिल्कुल जुदा होता था। किसी साधुको आर्यिकासे या आर्यिका - को साधुसे एकान्तमें बातचीत करनेकी सख्त मनाई थी, और निश्चित दूरीपर बैठनेका आदेश था । साधुवर्ग राजकाजसे कोई सरोकार नहीं रख सकता था । साधुके जो दस कल्प- अवश्य करने योग्य आचार बतलाये हैं उनमें साधुके लिए राजपिण्ड - राजाका भोजन ग्रहण न करना भी एक आचार है । राजपिण्ड ग्रहण करनेमें अनेक दोष बतलाये हैं। हिन्दू धर्म में धार्मिक क्रियाकाण्ड और धार्मिक शास्त्रोंके अध्ययन अध्यापनके लिये एक वर्ग हो जुदा होनेसे हिन्दू धर्मके अनुयायी गृहस्थ अपने धर्मके ज्ञानसे तो एक तरह से शून्यसे ही हो गये और आचार में केवल ऊपरी बातोंतक ही रह गये । किन्तु जैनधर्म में ऐसा कोई वर्ग न होनेसे और शास्त्र स्वाध्याय तथा व्यक्तिगत सदाचरणपर जोर होनेसे सब श्रावक और श्राविकाएँ जैनधर्मके ज्ञान और आचारणसे वंचित नहीं हो सके । फलतः साधु और आर्यिकाओंके आचारमें कुछ भी त्रुटि होनेपर वे उसको झट आँक लेते थे। ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकयुगमें मुनियोंमें शिथिलाचार कुछ
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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