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________________ जैनधर्म चहा (११) जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड़ कुमार्गमें चलता है उसे दयालु विद्वान कुमार्गमें कभी भी नहीं चलने देता।। (१२) हे पुत्रो ! सब स्थावर जंगम जीवमात्रको मेरे ही समान समझकर भावना करना योग्य है। ये सभी उपदेश जैनधर्मके अनुसार हैं। इनमें नम्बर ४ का उपदेश तो खास ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्डको बन्धका कारण बतलाता है। जैनधर्मके अनुसार मन, वचन और कायका निरोध किये बिना कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। किन्तु वैदिक धर्मों में यह बात नहीं पाई जाती। शरीरके प्रति निर्ममत्व होना, तत्त्वज्ञान पूर्वक तप करना, जीवमात्रको अपने समान समझना, कामवासनाके फन्दे में न फंसना, ये सब तो वस्तुतः जैनधर्म ही है। अतः श्रीमद्भागवतके अनुसार भी श्रीऋषभदेवसे ही जैनधर्मका उद्गम हुआ ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है। अन्य हिन्दू पुराणोंमें भी जैनधर्मकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें प्रायः इसी प्रकारका वर्णन पाया जाता है। ऐसा एक भी ग्रन्थ अभी तक देखनेमें नहीं आया, जिसमें वर्धमान या पार्श्वनाथसे जैनधर्मकी उत्पत्ति बतलाई गई हो। यद्यपि उपलब्ध पुराणसाहित्य प्रायः महावीरके बादका ही है, फिर भी उसमें जैनधर्मकी चर्चा होते हुए भी महावीर या पार्श्वनाथका नाम तक नहीं पाया जाता। इससे भी इसी बातकी पुष्टि होती है कि हिन्दू परम्परा भी इस विषयमें एक मत है कि जैनधर्मके संस्थापक ये दोनों नहीं है। ___इसके सिवा हम यह देखते हैं कि हिन्दू धर्मके अवतारोंमें अन्य भारतीय धर्मों के पूज्य पुरुष भी सम्मिलित कर लिये गये हैं, यहाँ तक कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में होनेवाले बुद्धको भी उसमें सम्मिलित कर लिया गया है जो बौद्धधर्मके संस्थापक थे। किन्तु उन्हींके समकालीन वर्धमान या महावीरको उसमें सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि वे जैनधर्मके संस्थापक नहीं थे। जिन्हें हिन्दू परम्परा जैनधर्मका संस्थापक मानती थी के
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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