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________________ २५८ जैनधर्म भी अव्यवस्थित हो गये तब महाबीर निर्वाणकी छठी शताब्दीमें आर्य स्कन्दिलकी अध्यक्षतामें मथुरामें फिर एक सभा हुई और उसमें फिरसे शेप बचे अंग साहित्यको सुव्यवस्थित किया गया। इसे माथुरी वाचना कहते हैं। इसके बाद महावीर निर्वाणकी दसवीं शनीमें बल्लभी नगरी (काठियावाड़) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणके सभापतित्वमें फिर एक सभा हुई। इसमें फिरसे ग्यारह अंगोंका संकलन हुआ। बारहवाँ अंग तो पहले ही लुप्त हो चुका था। अबतक स्मृतिके आधारपर ही अंगसाहित्यका पठन-पाठन चलता था, किन्तु अब वीर नि० सं० ९८० ( ई० सं० ४५३ ) के लगभग उन्हें पुस्तकारुढ़ किया गया। विद्यमान जैन आगमोंकी व्यवस्था अपने सम्पादक देवदिगणिकी मुख्यरूपसे आभारी है। उन्होंने इन्हें अध्यायोंमें विभक्त किया। जो भाग त्रुटित हो गये थे उन्हें अपनी बुद्धिके अनुसार सम्बद्ध किया । डा० जेकोवीके कथनानुसार देवर्द्धिगणिके पश्चात् भी जैन आगमोंमें बहुत फेरफार हुआ है। १ समयसुन्दरगणिने अपन सामाचारी शतकमें लिखा है "श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशोत्यधिक नवशत-( ९८०) वर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षवशात् वहुतरसाधु व्यापत्तौ बहुश्रुतविच्छित्तौ च जातायाँ.....'भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाग्रहात् मृतावशिष्टतदाकालीनसर्वसाधून बलभ्यामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढाः कृताः । ततो मूलतो गणधरभाषितानामपि तत्संकलनानन्तरं सर्वेषामपि आगमानां कर्ता श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमण एव जातः ।" ___'अर्थात्-श्रीदेवद्धिगणि क्षमाश्रमणने वीर नि० सं० ९८० ने बारह वर्षके दुभिक्षके कारण बहुतसे साधुओंके मर जानेसे बहुतसे श्रुतके नष्ट हो जानेपर, भव्यजीवोंके उपकारके लिए शास्त्रको भक्तिसे प्रेरित होकर, संघके आग्रहसे बाकी बचे सब साधुओंको बलभी नगरीमें बुलाकर, उनके मुखसे बाकी बचे, कमती, बढ़ती; त्रुटित आगमके वाक्योंका अपनी बुद्धिके
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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