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________________ जैनधर्म कुटक देशोंका राजा अर्हन उन्होंके 'उपदेशको लेकर कलियुगमें जब अधर्म बहुत हो जायगा तब स्वधर्मको छोड़कर कुपथ पाखंड (जैनधर्म) का प्रवर्तन करेगा। तुच्छ मनुष्य मायासे विमोहित होकर, शौच आचारको छोड़कर ईश्वरकी अवज्ञा करनेवाले व्रत धारण करेंगे। न स्नान, न आचमन, ब्रह्म, ब्राह्मण, यज्ञ सबके निन्दक ऐसे पुरुष होंगे और वेद-विरुद्ध आचरणकरके नरकमें गिरेंगे। यह ऋषभावतार रजोगुणसे व्याप्त मनुष्योंको मोक्षमार्ग सिखलानेके लिये हुआ। श्रीमद्भागवतके उक्त कथनसे यदि उस अंशको निकाल दिया जाये, जो कि धार्मिक विरोधके कारण लिखा गया है तो उससे बराबर यह ध्वनित होता है कि ऋषभदेवने ही जैनधर्म का उपदेश दिया था क्योंकि जैन तीर्थकर ही केवलज्ञानको प्राप्त कर लेने पर 'जिन' 'अर्हत्' आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं और उसी अवस्थामें वे धर्मोपदेश करते हैं जो कि उनकी उस अवस्थाके नाम पर जैनधर्म या आर्हत धर्म कहलाता है । सम्भवतः दक्षिणमें जैनधर्मका अधिक प्रचार देख कर भागवतकारने उक्त कल्पना कर डाली है। यदि वे सीचे ऋषभदेवसे ही जैनधर्मकी उत्पत्ति बतला देते तो फिर उन्हें जैनधर्मको बुरा भला कहनेका अवसर नहीं मिलता। अस्तु, श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवजी के द्वारा उनके पुत्रोंको जो उपदेश दिया गया है वह भी बहुत अंशमें जैनधर्मके अनुकूल ही है । उसका सार निम्न प्रकार है (१) हे पुत्रो! मनुष्यलोकमें शरीरधारियोंके बीचमें यह विहीना देवहेलनान्यपव्रतानि निजेच्छया गृह्लाना अस्नानाचमनशौचकेशोल्लुंचनादीनि कलिनाऽधर्मबहुलेनोपहतधियो ब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुषलोकबिदूषकाःप्रायेण भविष्यन्ति ॥१०॥ ते च स्वह्यक्तिनया निजलोकयात्रया:न्धपरम्परया श्वस्ताः तमस्यन्धे स्वयमेव पतिष्यन्ति । अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः ॥" स्क० ५, अ०६ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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