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________________ जैनधर्म २४८ और आजकल के जैन बहुत-सी आधुनिक भारतीय भाषाओंका उपयोग करते हैं तथा उन्होंने हिन्दी और गुजराती साहित्य को तथा दक्षिण में तमिल और कन्नड़ साहित्यको विशेष रूपसे समृद्ध किया है ।' 1 आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सब भगवान् महावीरकी उपदेश परम्परासे सम्बद्ध है । भगवान महावीरके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति थे । उन्होंने भगवान महावीरके उपदेशोंको अवधारण करके बारह अंग और चौदह पूर्वके रूप में निबद्ध किया । जो इन अंगों और पूर्वोका पारगामी होता था उसे श्रुतकेवली कहा जाता था । जैन परम्परामें ज्ञानियों में दो ही पद सबसे महान गिने जाते हैं- प्रत्यक्ष ज्ञानियों में केवलज्ञानीका और परोक्ष ज्ञानियों में श्रुतकेवलीका । जैसे केवलज्ञानी समस्त चराचर जगतको प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं वैसे ही श्रुतकेवली शास्त्रमें वर्णित प्रत्येक विषयको स्पष्ट जानते हैं । भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् तीन केवलज्ञानी हुए और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमें से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इनके समयमें मगध में बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब ये अपने संघके साथ दक्षिणकी ओर चले गये और फिर लौटकर नहीं आये । अतः दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्र में भद्रबाहु स्वामीकी अनुपस्थितिमें जो अंग साहित्य संकलित किया गया वह एकपक्षीय कहलाया, दूसरे पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि दुर्भिक्षके समय जो साधु मगधमें ही रह रहे थे, सामयिक कठिनाइयोंके कारण वे अपने आचारमें शिथिल हो गये थे । यहींसे जैनसंघ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें बँट गया और उसका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया । दिगम्बर साहित्य श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ । चौदह पूर्वोमेंसे ४ पूर्व उनके साथ ही लुप्त हो गये । उनके
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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