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________________ २४५ चारित्र द्रव्य समस्त लोकमें व्याप्त हैं और लोकके ऊपर उसके अप्रभागमें ही मोक्षस्थान हैं। गतिमें सहायक धर्मद्रव्य वहीं तक व्याप्त है, आगे नहीं । अतः मुक्त जीव वहींपर रुक जाता है, आगे नहीं जाता। मुक्त अवस्थामें बिना शरीरके केवल शुद्ध आत्मा मात्र रहता है। उसका आकार उसी शरीरके समान होता है जिससे आत्माने मुक्तिलाभ किया है । जैसे धूपमें खड़े होनेपर शरीरको छाया पड़ जाती है वैसे ही शरीराकार आत्मा मुक्तावस्थामें होता है जो अमूर्त होनेके कारण दिखायी नहीं देता। मुक्त हो जानेके बाद यह आत्मा जीना, मरना, बुढ़ापा, रोग, शोक, दुःख, भय वगैरहसे रहित हो जाता है ; क्योंकि ये चीजें शरीरके साथ सम्बन्ध रखती हैं और शरीर वहाँ होता नहीं है । तथा मुक्तपना आत्माकी शुद्ध अवस्थाका ही नामान्तर है, अतः जबतक आत्मा शुद्ध है तबतक वहाँसे च्युत नहीं हो सकता। और पुनः अशुद्ध होनेका कोई कारण वहाँ मौजूद नहीं रहता अतः वहाँसे कभी नहीं लौटता, सदा निराकुलतारूप आत्मसुखमें मग्न रहता है। १०. क्या जैनधर्म नास्तिक है ? जो धर्म ईश्वरको सृष्टिका कर्ता और वेदोंको ही प्रमाण मानते हैं, वे जैनधर्मकी गणना नास्तिक धर्मों में करते हैं; क्योंकि जैनधर्म न तो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता मानता है और न वेदोंके प्रामाण्यको ही स्वीकार करता है। किन्तु 'जो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नहीं मानता और न वेदोंको प्रमाण मानता है वह नास्तिक है' नास्तिक शब्दका यह अर्थ किसी भी विचारशील शास्त्रज्ञने नहीं किया। बल्कि जो परलोक नहीं मानता, पुण्य पाप नहीं मानता, नरक स्वर्ग नहीं मानता, परमात्माको नहीं मानता, वह नास्तिक है, नास्तिक शब्दका यही अर्थ पाया जाता है। इस अर्थकी दृष्टिसे जैनधर्म घोर आस्तिक ही ठहरता है,
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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