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________________ २४३ चारित्र आत्मध्यानमें लीन साधुके ही होते हैं। और उनमेंसे प्रत्येक गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त-एक मुहूर्तसे कम होता है। ९.मोक्ष या सिद्धि मुक्ति या मोक्ष शब्दका अर्थ छुटकारा होता है। अतः आत्माके समस्त कर्मवन्धनोंसे छूट जानेको मोभ कहते हैं। मोक्षका दूसरा नाम सिद्धि भी है। सिद्धि शब्दका अर्थ 'प्राप्ति' होता है। जैसे धातुको गलाने तपाने वगैरहसे उसमेंसे मल आदि दूर होकर शुद्ध सोना प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्माके गुणोंको कलुषित करनेवाले दोषोंको दूर करके शुद्ध आत्माकी प्राप्तिको सिद्धि या मोक्ष कहते हैं। कर्ममलसे छुटकारा पाये बिना आत्मा शुद्ध नहीं होता अतः मुक्ति और सिद्धि ये दोनों एक ही अवस्था के दो नाम हैं जो दो बातोंको सूचित करते हैं । मुक्ति नाम कर्मबन्धनसे छुटकारेको बतलाता है और सिद्धि नाम उस छुटकारेके होनेसे शुद्ध आत्माकी प्राप्तिको बतलाता है। अतः जैनधर्ममें न तो आत्माके अभावको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा बौद्ध लोग मानते हैं और न आत्माके गुणोंके विनाशको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा वैशेषिक दर्शन मानता है । जैनधर्म में आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है जो ज्ञाता और दृष्टा है, किन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनसे बँधा हुआ होनेके कारण अपने किये हुए कर्मोंका फल भोगता रहता है । जब वह उस कर्मबन्धनका क्षय कर देता है तो मुक्त कहलाने लगता है। मुक्त अवस्था में उसके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि स्वाभाविक गुण विकसित हो जाते हैं। जैसे स्वर्णमेंसे मलके निकल जानेपर उसके स्वाभाविक गुण पीतता वगैरह ज्यादा विकसित हो जाते हैं इसीसे शुद्ध सोना ज्यादा चमकदार और पीला होता है, वैसे ही आत्मामेंसे कर्म मलके निकल जानेसे आत्माके स्वाभाविक गुण निखर उठते हैं । मुक्त होनेके बाद यह जीव ऊपरको जाता है। चूंकि
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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