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________________ जैनधर्म २ सुखरूप, ३ सुख-दुःखरूप, ४ दुःखसुखरूप, ५ दुःखरूप और ६ अतिदुःखरूप। जैसे चलती हुई गाडीके चक्रका प्रत्येक भाग नीचेसे ऊपर और ऊपरसे नीचे जाता आता है वैसे ही ये छ भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते हैं। अर्थात् एक बार जगत् सुखसे दुःखकी ओर जाता है तो दूसरी बार दुःखसे सुखकी ओर बढ़ता है। सुखसे दुःखकी ओर जानेको अवसर्पिणीकाल या अवनतिकाल कहते हैं और दुःखसे सुखकी ओर जानेको उत्सर्पिणीकाल या विकासकाल कहते हैं। इन दोनों कालोंकी अवधि लाखों करोड़ों वर्षोंसे भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकालके दुःखसुखरूप भागमें २४ तीर्थङ्करोंका जन्म होता है, जो 'जिन' अवस्थाको प्राप्त करके जैनधर्मका उपदेश देते हैं। इस समय अवसर्पिणीकाल चालू है। उसके प्रारम्भके चार विभाग बीत चुके हैं और अब हम उसके पाँचवें विभागमेंसे गुजर रहे हैं। चूँकि चौथे विभागका अन्त हो चुका, इसलिये इस कालमें अब कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा। इस युगके २४ तीर्थङ्करोंमेंसे भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। तीसरे कालविभागमें जब तीन वर्ष ८॥ माह शेष रहे तब ऋषभदेवका निर्वाण हुआ और चौथे कालविभागमें जब उतना ही काल शेष रहा तब महावीरका निर्वाण हुआ। दोनोंका अन्तरकाल एक कोटा-कोटी सागर बतलाया जाता है। इस तरह जैन परम्पराके अनुसार इस युगमें जैनधर्मके प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। प्राचीनसे प्राचीन जैनशास्त्र इस विषयमें एक मत हैं और उनमें ऋषभदेवका जीवन-चरित्र बहुत विस्तारसे वर्णित है। जैनेतर साहित्य जैनेतर साहित्यमें श्रीमद्भागवतका नाम उल्लेखनीय है। इसके पाँचवें स्कन्धके, अध्याय २-६ में ऋषभदेवका सुन्दर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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